अध्याय पन्द्रहवॉं
तिलक देत व्याख्यान
९९४ सन उन्नीस सौ आठ की,
चार मई शनिवार। शहर अकोला में सभा, जनता भीड़
अपार ॥ 
९९५ शिवा जयन्ती मन रही,
जन आन्दोलित होय। उत्सव की तैयारियाँ, एक माह
से होय ॥ 
९९६ शिव जयन्ति उत्सव जमे,
बड़े -बड़े विद्वान। खापर्डे कोल्हटकर, दामले
पटवर्धन ॥ 
९९७ बाल गंगाधर तिलक,
सभापति पद पाय। तिलक अकोला आयेंगे, जनता हर्ष
मनाय ॥ 
९९८ दूध में पड़े शर्करा,
शोभा दिव होगी। उत्सव में आयें अगर, श्री
गजानन योगी ॥ 
९९९ कुछ सदस्य प्रस्ताव का,
करने लगे विरोध। भरी सभा में औलिया, डालेगा
गतिरोध ॥ 
१००० नंगा घूमेगा सभा,
गिण गिण बोले बोल। नहीं ठिकाना मार दें, लोकमान्य
को धौल ॥ 
१००१ श्री गजानन के चरण,
सभा माहि पड़ जाय। ऐसा तर्क करे बाकी, निर्णय
भी हो जाय ॥ 
१००२ दादा खापर्डे गये,
आमंत्रण के काज। सभा हेतु हम आयेंगे, देते
श्री आवाज ॥ 
१००३ उत्सव में हम आय के,
बैठ रहेंगे मौन। बाल तिलक जैसा यहाँ, देश
उद्धारक कौन ॥ 
१००४ अण्णा पटवर्धन वहाँ,
नरसिंह जी के शिष्य। ये दो महान आत्मा, मिलने
आयं अवश्य ॥ 
१००५ श्री की बातें सुनते ही,
खापर्डे आनन्द। देखो श्री जी जानते, हुए अकोला
द्वन्द ॥  
१००६ इनका ज्ञान अगाध है,
य तिरकाली सन्त। बोलें हम उसके पहले, हाँ कह
देवें सन्त ॥ 
१००७ लहर ख़ुशीकी छा गई,
विदर्भ में चहुँ ओर। सभा दिवस सब चल पड़े, शहर
अकोला ओर ॥ 
१००८ भाषण सुनने तिलक का,श्री के दर्शन पाय। सभा मंच मैदान में, जनता नहीं
समाय ॥ 
१००९ तिलक आदि विद्वान सभी,
मण्डप विराजमान। महाराज श्री को दिया, विशेष
आसन मान ॥ 
१११० सभा कार्यक्रम शुरू हुआ,
तिलक देय व्याख्यान। वीर शिवा के चरित का, करने
लगे बखान ॥ 
११११ रामदास स्वामी दिये,
शिवाराज आशीष। श्री गजसनना आय यहाँ, आज देत
आशीष ॥ 
१११२ जो समाज आज़ाद नहीं,
वह नाही जीवन्त। राष्ट्रप्रेम जिससे बढ़े, वह
शिक्षा गुणवन्त ॥ 
१०१३ ऐसी शिक्षा देश में,
आज जरूरी होय। पर क्या इस सरकार से, ऐसी आशा
होय ॥ 
१०१४ लोकमान्य आवेश में,
भाषण करते जायं। अंगरेजी सरकार को, ताने मारत
जायं ॥ 
१०१५ श्री समर्थ ने बीच में,
दिया तिलक को रोक। हथकड़ियाँ पड़ जायगी, हँसते-
हँसते रोक ॥ 
१०१६ ऐसा कहकर गजानना,
गणगणगणात बोल। सभा विसर्जन हो गई, ताल बजायें
टोल ॥ 
१०१७ सभा बीच श्री जस कहें,
वैसा ही हो जाय। उसी साल में बाल तिलक, गिरफ़्तार
हो जाय ॥ 
१०१८ चलने लगा मुकद्दमा
,सख्त होय सरकार। कोशिश मित्र वकील करें, ना
माने सरकार ॥  
१०१९ दादा खापर्डे बड़े,
बैरिस्टर कहलायं। श्री से मिलने वास्ते, कोल्हटकर
भिजवायं ॥ 
१०२० कोल्हटकर शेगांव में,
श्री से मिलने आय। महाराज तो शयन में, तीन
दिवस हो जाय ॥ 
१०२१ कोल्हटकर मन्दिर रुके,
स्नेह तिलक से होय। चौथे दिन श्री जी उठे, मुलाकात
तब होय ॥ 
१०२२ कैद शिवाजी भी हुए,
गुरु यद्द्पि रामदास। राज क्रान्ति होवे तभी, सज्जन
पायें त्रास ॥ 
१०२३ यह मैं भाकर दे रहा,
तुरतहि तिलक खिलाय। इस भाकर की जोर पर, काम
बड़ा कर जाय ॥ 
१०२४ कोल्हटकर मुम्बई गये,
भाकर तिलक खिलाय। सत्य कहें श्री गजानना, तिलक
रहे मुसकाय ॥ 
१०२५ यश नाही मिलना तुम्हें,
यत्न होय बेकार। न्याय नहीं देगी हमें, अंगरेजी
सरकार ॥ 
१०२६ किन्तु हमारे हाथ से,
काम बड़ा एक होय। गजानना यह जो कहा, बात गूढ़ की
होय ॥ 
१०२७ सन्त जानते भुत भविष,
वे जाने वर्तमान। देखें आगे होय क्या, हम तो
हैं अनजान ॥ 
१०२८ तिलक गये फिर जेल में,
काम बड़ा हो जाय। गीता रहस्य नाम का, ग्रंथ बड़ा
लिख पाय ॥ 
१०२९ अमर हो गये बाल तिलक,
जब तक गीता होय। धर्म सनातन काल तक, कीरत अखंड
होय ॥  
सब कुछ है इस देश में क्यों विदेश को जाय
१०३० श्रीधर गोविन्द नाम था,
काळे था उपनाम। कोल्हापुर में वास करे, मिले
ना कुछ भी काम ॥ 
१०३१ मैट्रिक उसने पास की,
पर था इंटर फेल। पढ़ने का शौकीन था, हवा बनाय
महैल ॥ 
१०३२ ओयोमा टोगा चरित,
पढ़ा एक अख़बार। मन विचार ऐसा उठे, मैं भूमी पर
भार ॥ 
१०३३ विदेश जाकर सीख लूँ,
विद्या ऐसी कोय। टोगो यामा जस किया, देश लाभ
तो होय ॥ 
१०३४ विदेश जाने के लिये,
पैसे की दरकार। पैसा मिलने की जुगत, करे गरीब
विचार ॥ 
१०३५ एक मित्र के साथ जब,
भंडारा से आय। कीरत सुनी गजानना, शेगांव उतर
जाय ॥ 
१०३६ आतुर मन वह गजानना,
के मन्दिर में आय। प्रणाम श्रीजी को करे, सम्मुख
बैठ जाय ॥ 
१०३७ श्री जी तो पहिचानते,
श्रीधर किया विचार। विदेश जाने की इच्छा, तेरी
है बेकार ॥ 
१०३८ सब कुछ है इस देश में,
पागलपन तू छोड़। सेवा कर अध्यात्म की, ज्ञान
भौतिकी छोड़ ॥ 
१०३९ कान पड़े श्री शब्द जो,
श्रीधर चौंका जाय। कोल्हापुर के गुरु की, याद
उसे आ जाय ॥ 
१०४० श्री फिर चिल्लाए कहा,
तू कहीं ना जाना। अगणित पुण्य करे जनम, भारत
में पाना ॥ 
१०४१ योग शास्त्र ही श्रेष्ठ है,
भौतिक शास्त्र नहीं। जो भी जाने योग को, भौतिक
मान्य नहीं ॥ 
१०४२ योग शास्त्र से भी अधिक,
अध्यातम का ज्ञान। कोशिश कर तू जान ले, होगा
तब कल्यान ॥ 
१०४३ श्रीधर श्री जी की बातें,
दत्त चित्त सुन जाय। विचार उसके बदल गये, मन
आनन्द समाय ॥ 
१०४४ महाराज आशीष दें,
अब जा कोल्हापुर। घर पर तेरी भार्या, राह तके
मजबूर ॥ 
१०४५ श्रीधर वापस आय के,
आगे शिक्षा पाय। शिवपुरी के कॉलेज का, प्रिंसीपल
हो जाय ॥ 
१०४६ इस धरती पर सन्त ही,
ईश्वर के हैं रूप। सन्तों के आशीष मिले, वह
धरती पर भूप ॥ 
१०४७ गण गण गणात बोते बोल,
जय जय गजानना। राणा हैं शेगांव के, योगी
गजानना ॥ 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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