अध्याय सोलह
पुंडलिक भेजी पादुका
१०४८ गजानना के भक्त थे,
पुंडलिक भोकरे। रहवासी मुंड़गांव के, श्री से प्रेम
करे ॥
१०४९ उसी गांव भागाबाई,
भी रहती थी एक। ढोंगी घूमत इधर उधर, निष्ठा कहीं
न एक ॥
१०५० पुंडलिक से कहती तेरा,
जनम व्यर्थ हो जाय। गुरु तूने नाही किया, मंत्र
नहीं फुंकवाय ॥
१०५१ पीछे पागल पीर के,
जाता तू शेगांव। भ्रष्ट आचरण वह करे, सनकी असुर
सुभाव ॥
१०५२ गुरु बनाये हम दोनों,
चल तू अंजन गांव। ज्ञानी चतुर गुरू
वहाँ, सिखाय भक्ती भाव ॥
१०५३ कल है उनका कीर्तन,
सग चलेंगे भोर। असमंजस में पुंडलिक, हाँ भर दे
बरजोर ॥
१०५४ रात तीसरे प्रहर को,
श्री सपने में आयं। भागीबाई के कहे, तू रे क्यों
भरमाय ॥
१०५५ गुरु बनाने जा रहा,
क्या तू अंजनगांव। जा जा वहाँ पहुँचते ही, भ्रम
तेरा मिट जाव ॥
१०५६ कानाफूसी जो करे,
क्या वह गुरु हो जाय। अरे पुंडलिक जाल में, ढोंगी
के मत आय ॥
१०५७ फिर श्री उसके कान में,
गण गण गण बोले। बोल तुझे क्या चाहिये, जो चाहे
ले ले ॥
१०५८ आँखें मल कर देखता,
चकित गजानन दास। चरण पादुका दें मुझे, और नहीं
कुछ आस ॥
१०५९ श्री जी कहें तथास्तु,
पादुक करें प्रदान। उसी समय निद्रा खुली, पुंडलिका
हैरान ॥
१०६० उधर उधर देखन लगा,
श्रीजी नहीं दिखाय। चरणपादुका भी नहीं, उलझन में
पड़ जाय ॥
१०६१ सपने में जब पादुका,
श्रीजी मुझको देय। और कहें कल दोपहरी, तू पूजा
कर लेय ॥
१०६२ महाराज का शब्द तो,
कभी न खाली जाय। इसका मतलब क्या समझूं, मन बुद्धि
चकराय ॥
१०६३ क्या में पूजा के लिये,
नई पादुका लाऊं। पर श्री जी ने तो मुझे, खुद की
दई खड़ाऊं ॥
१०६४ ऐसा सोच रहा मन में,
भागीबाई आय। चलो सुबह अब हो गई, गुरू बनाने जाय ॥
१०६५ पुण्डलिक उस को मना करे,
आऊं न तेरे साथ। गजानना मेरे गुरु, तजूं न उनका
साथ ॥ १०६६ इधर झ्यामसिंग राजपूत, दो दिन था शेगांउ। वापस जब जाने लगा, कहते बाला भाउ ॥
१०६७ श्री ने दी यह पादुका,
तुम संगे ले जाव। पुंडलिक को पहुंचाय दो, रहे आपके
गांव ॥
१०६८ झ्यामसिंग की गांव में,
पुंडलिक से हुइ भेंट। पूछे क्या महाराज
दी, कुछ परसादी भेंट ॥
१०६९ झ्यामसिंग विस्मित उसे,
अपने घर ले जाय। परसादी की बात क्यों, पूछी तूने
भाय ॥
१०७० सपने वाली बात उसे,
पुंडलीक बतलाय। झ्यामसिंग को तब सारी, बात समझ
में आय ॥
१०७१ लाया जो शेगांव से,
वह पादुका निकाल। पुंडलिक के हाथों रखी, वह हो
गया निहाल ॥
१०७२ दोपहरी को भोकरे,
पूजा पाद करे। मुंड़गांव में आज भी, दर्शन लोग करें
॥
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhayay-16 |
बिन
खाए बैठे रहे, भाऊ भाकर लाय
१०७३ सराफ राजाराम कंवर,
भक्त गजानन होय। उनके दोनों पुत्र भी, श्रद्धा
रखते होय ॥
१०७४ पुत्र ज्येष्ठ गोपाल था,
त्र्यंबक लघु का नाम। त्र्यम्बक को भाऊ कहें, बचपन
से उपनाम ॥
१०७५ सुमिरन पहले गजानना,
पढ़ते उसके बाद। डाक्टर बनने के लिये, गये हैदराबाद
॥
१०७६ छुट्टी में घर आय रहे,
मन में आया भाव। भोजन कराऊं सन्त को, जाकर मैं
शेगांव ॥
१०७७ बचपन में ही चली गई,
मां ईश्वर की गैल। भोजन कस तैयार हो, भौजाई गुस्सैल
॥
१०७८ मन में विचार चल रहे,
भौजाई आ जाय। देवर से पूछन लगी, चिन्ता कारण काय
॥
१०७९ भाभी मेरी भावना,
श्री को भोज करायं। कांदा भाकर झुणका, भोजन उन्हें
खिलायं ॥
१०८० भौजाई मुसकाय कहे,
चिन्ता की क्या बात। उठी तुरत उत्साह
से, रसोई लगी बनात ॥
१०८१ मिर्च हरी,
भाजी भाकर, मक्खन दिया लगाय। पुटली में बांधा भोजन,
देवर से कह जाय ॥
१०८२ तुरत जाव शेगांव की,
गाड़ी चली न जाय। महाराज के भोज का, समय नही टल
जाय ॥
१०८३ भाऊ भोजन साथ ले,
स्टेशन जा पहुंचाय। रेल मगर जाती रही, भाऊजी रह
जाय ॥
१०८४ निराश भाऊ नयन से,
अश्रु लगे झराय। मेरा क्या अपराध हुआ, सेवा दी
ठुकराय ॥
१०८५ विव्हल भक्त पुकारता,
सदगुरु तारणहार। भक्त वत्सल आन यहाँ, सेवा लें
स्वीकार ॥
१०८६ घण्टे बीते तीन तो,
अगली गाड़ी आय। उसमें बैठे पहुंच गया, भाऊ कवर शेगांव
॥
१०८७ मठ में दर्शन को गया,
देख होय अभिभूत। भोजन किये बिना वहाँ, बैठे थे
अवधूत ॥
१०८८ पकवानों से भरे हुए,
निवेद अगणित थाल। छुए न उनको गजानना, भक्त सभी
बेहाल ॥
१०८९ बाला भाऊ बारम्बार,
श्री को विनय करे| निवेद पायें आप तो, भोजन भक्त करें ॥
१०९० रुक बाला कुछ देर को,
तू मत आग्रह कर। आज देर होगी हमें, भोजन चौथ प्रहर
॥
१०९१ मर्जी हो तो सब रुकें,
या घर वापस जायं। उस पल भाऊ आय के, चरणों में गिर
जाय ॥
१०९२ श्रीजी भाऊ कवर को,
देख रहे मुसकाय। सुन ली पुकार भक्त की, श्री भूखे
रह जायं ॥
१०९३ भाऊ हर्षित होय कर,
श्री को भोज कराय। शेष प्रसादी जो बची, भक्तों
को बंट जाय ॥
१०९४ देख भक्त कौतुक करें,
सभी निवेद अजोग। भाऊ की भाकर काजे, छोड़े छप्पन
भोग ॥
१०९५ भाऊ को आशीष मिले,
होय डाक्टरी पास। श्री की दया बनी रहे, बस इतनी
ही आस ॥
तुकाराम सेवा करे,छर्रा बाहर आय
१०९६ तुकारामजी शेगोकार,
श्री के सेवक होय। दिन भर खेती काम करे, संध्या
दर्शन होय ॥
१०९७ चिलम भरे महराज की,
चरण वन्दना होय। फिर थोड़ा सत्संग करें, यही नित्यक्रम होय ॥
१०९८ किन्तु होय प्रारब्ध जो,
अनहोनी हो जाय। तुकाराम के खेत में, एक शिकारी
आय ॥
१०९९ हाथ लिये बन्दूक वह,
मार रहा खरगोश। तुकाराम छर्रा घुसा, गिरा होय बेहोश
॥
११०० मस्तक में छर्रा घुसा,
नहीं निकल वह पाय। डाक्टर सारे थक गये, पर ना चले
उपाय ॥
११०१ निश दिन मस्तक दर्द से,
तुकाराम हैरान। रात-रात भर नीन्द नहीं, आफत में
थी जान ॥
११०२ मन्दिर में वह एक दिन,
श्री दर्शन को आय। एक भक्त ने राय दी, सेवा मे
आ जाय ॥
११०३ साधु सेवा से बढ़कर,
उत्तम नहीं उपाय। कृपा सन्त की होय तो, कष्ट सभी
मिट जाय ॥
११०४ पर सेवा सच्ची करो,
ढोंगीपन ना होय। कष्ट दूर होगा अगर, खरी भावना
होय ॥
११०५ तुकाराम सेवा करे,
मन्दिर झाडे रोज। बीत गये चौदह बरस, कभी न समझा
बोझ ॥
११०६ एक दिवस ऐसा हुआ,
गुरु कृपा हो जाय। तुकाराम के कान से, छर्रा बाहर
आय ॥
११०७ छर्रा बाहर आय तो,
दर्द हो गया बन्द। सेवा का मेवा मिला, तुकाराम
आनन्द ॥
११०८ गण गण गणात बोते बोल,
जय जय गजानना। राणा हैं शेगांव के, योगी गजानना
॥
No comments:
Post a Comment