Gajanan Maharaj

Wednesday, May 27, 2020

Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-13


अध्याय तेरह           

 ईश देत सब कुछ तुझे, तू भी देना सीख

८६६ चन्दा करने जब चले, बंकट हरि जगदेव। श्रद्धा से देवे कोई, कोई टालत देव
८६७ कोई देवे उलाहना, चन्दा काहे लेव। अनहोनी होनी करे, सन्त आपका देव
८६८ चिट्ठी लिखे कुबेर को, देवे धन भिजवाय। तुम क्यों धन के वास्ते, द्वार द्वार भटकाय
८६९ समझाये आबा जगु, दौड़ धूप जो होय। जग के ही कल्याण हित, भला तुम्हारा होय
८७० श्री जी को ना चाहिये, मठ मंदिर घर द्वार। उनका मठ तिरलोक है, धरती है बिस्तार
८७१ अष्ट सिद्धि सेवा करे, तुमसे कुछ नहिं आश। सूरज को ना चाहिये, दीपक से परकाश
८७२ ऐहिक सुख जो चाहिये, पुण्य जरूर करो। सुख सम्रुद्धी के लिये, दान जरूर करो
८७३ ईश देत सब कुछ तुझे, तू भी देना सीख। भगवन से मिलता तुझे, वितरण करना सीख
८७४ औषध रोगों के लिये, आतम को क्या काम। शरीर रोगों से डरे, मस्त आतमा राम
८७५ सम्पन्नता शरीर है, अनाचार है रोग। पुण्य करो संचय मिटे, शरीर का यह रोग
८७६ अपने धन के बीज को, पुण्य धरा पर बोय। अनाचार दुर्वासना, पत्थर फसल होय
८७७ सेवा करियो सन्त की, पुण्य बड़ा ना कोय। सन्त कार्य में दान दिया, लौटे अगणित होय
८७८ जगु आबा के तर्क से, लोग प्रभावित होय। चन्दा सब देने लगे, काम द्रुत गती होय
८७९ रेती गाड़ी बैठकर, इक दिन श्री महराज। करें निरीक्षण काम का, उत्साही  थे राज
८८० आती थी जब अड़चनें, श्री उत्साह बढ़ाय। बाल ना बाँका हो सके, आशीर्वचन सुनाय
८८१ श्री के आशीर्वाद से, नवीन मठ तैयार। अब सुनिये होने लगे, वहाँ आशिर्वचन चमत्कार
 
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-13
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-13

सन्त प्रवर की थप्पड़ से शक्तिपात हो जाय

८८२ गंग भारती गोसाई, रक्तपित्त था रोग। शरीर सारा सड़ गया, गुसाय भोगे भोग
८८३ कीरत गजानना सुनी, आया वह शेगांव। दर्शन को जाने ना दें, गोसाई रुक जाव
८८४ महारोग तुझको लगा, श्री से रहियो दूर। निराश गोसाई भया, मिलने से मजबूर
८८५ श्री शरणागत आय के, दर्शन ना हो पाय। दर्शन जब लग ना मिले, शान्ती ना मिल पाय
८८६ चोरी -चोरी एक दिन, श्री तक जा पहुंचाय। चरणों माथा टेकता, श्री जी धप्प लगाय
८८७ भोंचक जैसा खड़ा हुआ, थप्पड़ मारे जाय। मारे लात शरीर पर, खखार थूकत जाय
८८८ खखार उस पर जो पड़ी, माने वही प्रसाद। तन पर सारे मल रहा, गोसाई आल्हाद
८८९ श्री बलगम जो थूकते, मलहम माना होय। श्रद्धा भाव गुसायं यूं, औषधि पाता होय
८९० रोग मुक्त गोसाय हुआ, भजन राग से गाय। श्री उसका गायन मधुर, सुन संतोष जताय
८९१ गंग भारती भार्या, अनसुय्या था नाम। चली संग संतोष सुत, पहुंची श्री के धाम
८९२ गंग निरोगी पाय कर, पत्नी पुतर निहाल। कहते सन्त कृपा हुई, आप मिले खुशहाल
८९३ गजानना साक्षात शिव, नव जीवन मिल जाय। चलिये घर वापस चलें, श्री की आज्ञा पाय
८९४ नहीं -नहीं अब मत करो, घर चलने की बात। अब कोई घर बार ना, गजानना मम नाथ
८९५ अहंकार उतरा मेरा, श्री के थप्पड़ खाय। चित्त अगर संसार में, क्यों भगवा पहिनाय
८९६ आंखें मेरी खुल गई, अब ना घर संसार। तू मां को सम्भालना, रे सन्तोष कुमार \
८९७ जब तक मां जीवित रहे, उत्तम सेवा होय। जो मां की सेवा करे, वासुदेव प्रिय होय
८९८ अब तक था परिवार का, प्रभु सेवा अब जाउं। यह मानव जीवन मिला, उसे सफल कर पाउं
८९९ परमारथ की खीर में, मोह धूल ना डाल। ऐसा कह परिवार को, लौटाया तत्काल
९०० गोसाई तल्लीन फिर, भक्ती में हो जाय। इकतारा ले शाम को, श्री जी के पद गाय
९०१ सवडद बुलढाणा जिला, गंग भारती गांव। श्री दर्शन के बाद कभी, गया अपने गांव
९०२ श्रीजी की आज्ञा हुई, मलकापुर को जाय। गुरूकाज हित आपना, जीवन दिया खपाय
९०३ सन्त प्रवरकी थप्पड़ से, शक्तिपात हो जाय। अध्यातम आरोग्य मिले, जनम सफल हो जाय

     नभ पर दृष्टीपात किया और खिल गई धूप

९०४ भक्त झ्यामसिंग ले गये, श्री जी को मुंड़गांव। भारी भगतन भीड़ का, बरनि जाय उछाव
९०५ मुंड़गांव तीरथ बना, भजन मंडली गाय। भोजन महाप्रसाद की, तैयारी हो जाय   
९०६ झ्यामसिंग चेताय दिये, गजानन महाराज। भोज व्यवस्था कल रखो, रिक्त चतुर्दश आज
९०७ झ्यामसिंग कहने लगा, भोजन है तैयार। प्रसाद पाने के लिये, भगतन जमे हजार
९०८ माना तेरी बात सही, यही जगत व्यवहार। भगवन की इच्छा बिना, चले जग व्यापर
९०९ भोजन पाने के लिये, पंगत जब बैठाय। भर आये आकाश घन, बिजली भी चमकाय
९१० आंधी भी चलने लगी, पेड़ गिरे भर्रार। पल में जल वर्षा हुई, भोजन सब बेकार
९११ झ्यामसिंग महराज से, विनय करे कर जोड़। कल पावस आये नहीं, ऐसी करियो तोड़
९१२ परसादी पाये नहीं, भगतन सभी निराश। निवारिये बरसात को, खेती होगी नाश
९१३ खेती होगी नाश तो, लोग करेंगे बात। पुण्य झ्यामसिंगा किया, पाप सभी भुगतान
९१४ झ्यामसिंग ना कर फिकर, कल ना हो बरसात। ऐसा कह श्री ने किया, नभ पर दॄष्टिपात
९१५ पल में बादल छंट गये, और खिल गई धूप पूनम भण्डारा हुआ, श्री जी ईश स्वरूप

पुंडलिका की गांठ गली, वह चंगा हो जाय

९१६ युवा भोकरे पुंडलिका, भक्त एक मुण्डगाव। श्री दर्शन यात्रा करे, वद्य पक्ष शेगांव
९१७ एक बार जब पुण्डलिका, यात्रा को शेगांव। पांच कोस घर से चला, ज्वर का चढ़ता ताव
९१८ मात पिता भी संग थे, कुछ ना उन्हें बताय। बिगड़ी तबियत इस तरह, कदम चला ना जाय
९१९ गांठ एक उभरी बगल, चिन्ता की थी बात। विदर्भ में फैला हुआ, प्लेग रोग उत्पात
९२० कष्ट अधिक बढ़ने लगा, पुण्डलिका हैरान। पिता पूछते पुत्र से, सांसत में क्यों जान
९२१ बतला कर निज तात को, तबियत का कुल हाल। श्री से करता प्रार्थना, पुण्डलिका बेहाल
९२२ हे स्वामी हे दया घना, यात्रा पूर्ण कराय। संचित पुण्य यही मेरा, खण्ड नहीं  पड़ पाय
९२३ सुत वत्सल मां बाप से, कष्ट देखा जाय। पैदल चलते ना बने, घोडा गाड़ी लायं
९२४ सदगुरु दर्शन यात्रा, पैदल करना मोय। कैसा भी हो कष्ट मगर, कुछ भी त्रुटि ना होय
९२५ राह चलत प्राणान्त हो, रुक जाए गर पांव। शोक करना लाश को, ले जाना शेगांव
९२६ जैसे -तैसे पुंडलिका, पहुंच गया शेगांव। दर्शन श्री जी के हुए, पड़ता उनके पांव
९२७ बगल दबाई जोर से, अपनी श्री महराज। अनिष्ट तेरा टल गया, भय का नाही काज
९२८ गजानना जैसा कहें, वही घटित हो जाय। गांठ बगल की गल गई, ताप उतरता जाय
९२९ पुंडलिका की माय फिर, श्री को निवद चढ़ाय। पुत्र प्रसाद खिला दिया, वह चंगा हो जाय
९३० भक्तों आंखे खोल कर, सत्य यही पहचान। चरित गजानन जो पढ़े, अनिष्ट टलता जान
९३१ अध्यातम आरोग्य पर, तेरहवां अध्याय। कवि सुमन्त अरु गजानना, दोनों के मन भाय
९३२ गण गण गणात बोते बोल, जय जय गजानना। राणा है शेगांव के, योगी गजानना

श्री हरिहरार्पणमस्तु शुभं भवतु

 (तेरहवाँ अध्याय समाप्त )



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