अध्याय दस
सन्त गरीबों की सदा पूरी करते आस
६५६ एक बार महराजजी, पहुंचे अमरावती। भगत आतमाराम करें, श्रीजी की भगती ॥
६५७ स्वागत श्रीजी का करें, मंगल स्नान करायं।आनन्दित अति होय कर, उबटन लेप लगाय ॥६५८ पहनाई धोती नई, गल फुलोंका हार। तिलक माथा चन्दन लगा, दिपारती उतार ॥
६५९ सौ रुपए दक्षणा दिये, नैवद भोग चढ़ाय | दर्शन को महाराज के, भीड़ बहुत पड़ जाय ॥
६६० हर कोई यह चाहता, श्री उसके घर आयं। सन्त चरण निज घर पडे, जनम सुफल हो जाय ॥
६६१ सबके के ऐसे भाग कहां,,कुछ ही थे पुनवान। खापर्डे एक वकील के,भाग्य बड़े बलवान ॥
६६२ उनके घर श्रीजी गये, स्वागत पूजन होय। वकील सरल सुभाव के, धन की कमी ना होय ॥
६६३ गणेश अप्पा वणिक की, भार्या चन्द्रा बाय। सोचे सन्त बुलाय कर, उनके पाद पुजाय ॥
६६४ अप्पा समझाये उसे, बनो न तुम नादान। ग़रीब के घर क्यों भला, आये सन्त महान ।॥
६६५ चन्द्रा जिद करने लगी, मन मेरे विश्वास। सन्त ग़रीबों की सदा, पूरी करते आस ॥
६६६ पर अप्पाजी चुप रहे, छाती धुक-धुक होय। श्री को आमंत्रित करूं, हिम्मत ही ना होय ॥
६६७ अन्तर्यामी गजानना, जाने मन की चाह। हाथ पकड़ कहने लगे,बतला घर की राह ॥
६६८ मेरी इछा हो रही,तेरे घर मैं आऊं। बैठूं थोड़ी देर वहां, कुछ बातें बतियाउं ॥
६६९ अप्पा हर्षित होय कर, श्री को घर ले जाय। पति -पत्नी पूजा करें, अर्पण सब कर जाय ॥
६७० प्रतिदिन पूजाएं चली, अमरावती निहाल। लौट गये शेगावं को, अब आगे का हाल ॥
महाराज जी स्थान बदल मोटे मन्दिर आय
६७१ 'मोटे मन्दिर' स्थान जो, बैठक वहां जमाय। छोड़ा 'पाटिल बाग' क्यों, कृष्णाजी घबराय ॥
६७२ श्री चरणों में बैठ कर, नैनन जल बरसाय। महाराज पूछन लगे, क्यों रोवत कृष्णाय ॥
६७३ हाथ जोड़ पाटिल कहें ,वापस चलिये नाथ। भूल अगर कोई हुई, माफ करें श्रीनाथ ॥
६७४ देशमुखोंका स्थान यह, यहां न रहिये आप। बाग नहीं मर्जी अगर, बाड़े रहिये आप ॥
६७५ बिनती पाटिल की सुनी, श्री उनको समझाय | मैं जो आ बैठा यहां, पाटिल कुटुम्ब हिताय ॥
६७६ जानोगे तुम भविष्य में, चुप कर भी कुछ देर। देशमूख पाटिल का, दूर करूंगा बैर ॥
६७७ तुमपर कृपा हमार है, उसमें कमी न आय। छोड़ा हमने बाग़ तो, क्लेश करो तुम काय ॥
६७८ जिस भू बैठ गजानना, सखाराम की होय। उसी जगह भक्तों द्वारा, मठ की रचना होय ॥
६७९ मठ रचना के काम में, सभी भक्त जुट जाय। परशराम और सावजी, बहुत काम कर जाय ॥
६८० अप्पा भास्कर पिताम्बरा, रामचन्द्र बाला | पंचरत्न सम भक्त रहे, श्री जी की माला ॥
६८१ बाला भाऊ ने भक्ती, उच्च कोटी की कीन। छोड़ नौकरी और घर, श्री सेवा में लीन ॥
६८२ भास्कर बाला की सदा, होती थी तकरार। बाला की महराजसे, करते रहते रार ॥
६८३ महाराज पीटें उसे, छतरी से दे मार। फिर भी वह आनन्द में, लीला अपरम्पार ॥
गोमाता सुकलाल की बन्धन मुक्त कराय
६८४ अब सुनिये सुकलाल की, दुष्ट एक थी गाय। देखन को तो गाय थी, बाघिन रहा सुभाय ॥
६८५ सींग मार चाहे जिसे, घूमत फिरे बजार। जिस दुकान भीतर घुसे, उसका बन्टा ढार ॥
६८६ बालापुर के लोग भी, त्रस्त हुए उस गाय। दे दो इसे कसाय को, ऐसी देवें राय ॥
६८७ इक पठान बन्दूक ले, गोली मारन आय। उस पठान को गाय ने, सींगों से उधडाय ॥
६८८ जा छोड़ा परगाव तो, वापस फिर आ जाय। परेशान सुकलाल को, सूझे नहीं उपाय ॥
६८९ लोगों ने की मंत्रणा, आया एक विचार। ले जाओ शेगांव इसे, गजानना दरबार ॥
६९० अश्व बुवा गोविन्द का, जैसे किया गरीब। अर्पण गाय करो उन्हें, वे जाने तरकीब ॥
६९१ साधू को गौदान का, पुण्य मिले सुकलाल। बालापुर संकट टले, शान्ती होय बहाल ॥
६९२ लोहे की जंजीर से, मुश्किल बांधी जाय। गाय चढ़ी गाड़ी चली, बालापुर से जाय ॥
६९३ आया जब शेगांव निकट, गौ का बदला भाव। गजानना सम्मुख खड़ी, लोचन नीर बहाव ॥
६९४ महाराज देखें उसे, बन्धे चारों पायं।
सींग गले जंजीर पड़ी, रोती जग की माय ॥
६९५ अरे अरे ये क्या किया, क्यों बांधी गौ माय। श्री जी आगे आय के, बंधन तोड़े गाय ॥
६९६ बन्ध खुले तो गौमाता, गाड़ी उतरी आय। श्री को वन्दन कर रही, आगे पाँव बढ़ाय ॥
६९७ गर्दन नीचे डालकर, प्रदक्षिणा कर तीन। दिव्य चरण चाटन लगी, देखें सब तल्लीन ॥
६९८ जय जय गजानना करें, भक्त सभी उद्घोष। मठ में तब से हो रहा, गौमाता का पोष ॥
भक्ति होय दिखावटी ना गजानना भाय
६९९ लक्ष्मण रहता कारंजा, धन से बड़ा अमीर। दुखी पेट के रोग से, औषध हरे न पीर ॥
७०० कीरत सुनी गजानना, आया वह शेगांव। लोग उठाकर लाय उसे, चले न पैदल पांव॥
७०१ नमन करे महाराज को, मुख से बोलन पाय। उसकी पत्नी सामने, आंचल दे फैलाय ॥
७०२ महाराज हे दया निधि, मुझ पर कृपा करो। धरमपुत्रि मैं आप की, इनकी पीड हरो ॥
७०३ महाराज जी उस घड़ी, बैठ खा रहे आम। एक आम फेंका कहा, खिला उसे यह आम ॥
७०४ सदा सुहागन तू रहे, हो तेरा पति स्वस्थ। इतना कह चुप हो गये, चिलम चढ़ाये मस्त ॥
७०५ रोगी को घर लौटकर, आम प्रसाद खिलाय। कृपा हुई शेगांव जो, स्त्री सब को बतलाय ॥
७०६ सुनकर बोले बैद जी, सर्व नाश हे राम। आमाशय के रोग में, कुपथ्य है जी आम ॥
७०७ बात सुनी जब बैद की, घर के सब घबराय। लक्ष्मण स्त्री ताने सुने, आशंकित हो जाय ॥
७०८ पर अचरज की बात यह, लक्ष्मण चंगा होय। वैद्य शास्त्र झूठे पड़े, सन्त वचन सत होय ॥
७०९ नीरोगी लक्ष्मण आया, दर्शन श्री महराज। कारंजा में घर मेरा, चरण पड़ें महराज ॥
७१० बिनती उसकी मानकर, श्री कारंजा जायं। लक्ष्मण सुस्वागत करे, पाद पुजाय धुलाय ॥
७११ फिर कहता वो सन्त से, सर्वस मालिक आप। फिर भी कुछ पैसे रखे, स्वीकारें यदि आप ॥
७१२ श्री जी ने निरखा उसे, फिर बोले ऐसा। तूने सब कुछ दे दिया, फिर कैसा पैसा ॥
७१३ लक्ष्मण तू अब छोड़ दे, गर्व भरी चालें। तूने घर मुझको दिया, फेंक सभी ताले ॥
७१४ लक्ष्मण तब घबराय के, खोल खजीना द्वार। जो चाहे ले जाय कहे, मन में और विचार ॥
७१५ बहुरुपिया डोलत फिरे, राजा बन बाजार। पर असली पहचान तो, जाने सब संसार ॥
७१६ लक्ष्मण दम्भी जान गये, इसी तरह महराज। घर उसका छोड़े तुरत, वे सागर बैराग ॥
७१७ जाते-जाते कह गये , नहीं असत्य कबूल। 'मेरा' 'मेरा ' समझता, भोगेगा यह भूल ॥
७१८ मैं तो था आया यहाँ, मिले दोगुना तोय। पर तेरा प्रारब्ध नहीं, कुछ उपाय ना होय ॥
७१९ श्री गजानना जस कहें, वही सत्य हो जाय। लक्ष्मण की धन सम्पदा, सभी नष्ट हो जाय ॥
७२० छः महिने गुजरे होंगे, मांगन लागा भीख। झूठ से न परमार्थ चले, इससे लो यह सीख ॥
७२१ गण गण गणात बोते बोल, जय जय गजानना। राणा हैं शेगांव के, योगी गजानना ॥
No comments:
Post a Comment