अध्याय चौदह
बण्डू तात्या स्वर्ण मोहरें पाय
९३३ गांव खेर्डा
में रहे, बंडू तात्या एक। सुभाव के सज्जन
बड़े, सीधे सादे नेक ॥
९३४ बनी रहे घर में सदा,
महमानों की भीड़। आव भगत सबकी करें,खरचे की ना
पीड ॥
९३५ कपास के व्यापार में,
हुआ बहुत नुकसान। तात्या कम नाही करे, महमानों
का मान ॥
९३६ धन संचय खुट जाय फिर,
करजा भी हो जाय। घर जमीन गिरवी पड़े बरतन भी बिक जाय ॥
९३७ साहुकार
करने लगे, तंग रात और दिन। भोजन के लाले पड़े,
तात्या दमड़ी हीन ॥
९३८ धन के साथ चला गया,
वैभव सुख सारा। घर में दुखिया हो गया, तात्या
बेचारा ॥
९३९ जहर खाय मर जाय पर,
जहर कहाँ से लाय। मरण मिले निश्चित नहीं, कूदे
कूंए माय ॥
९४० हिमालया की गोद में,
रक्खूं जाकर प्राण। प्रण करके बण्डू तात्या, घर
से करे प्रयाण ॥
९४१ चलते चलते राह में,
मन में कई विचार। प्रभु ने मो पे क्यों किया, इतना
अत्याचार ॥
९४२ तुम को कहते दया निधी,
मो पे दया न कीन। झूठे सब गुणगान तव, कवियों
ने लिख दीन ॥
९४३ स्टेशन आ पहुँचे वहाँ,
एक विप्र मिल जाय। हरिहर है शेगांव में, हरिद्वार
क्यों जाय ॥
९४४ तात्या अचरज में पड़े,
विप्र कहाँ से आय। वह तो सब कुछ जानता, मैं
पहचानू नाय ॥
९४५ मन ही मन निश्चय किया,
श्री दर्शन को जाय। आ पहुंचा शेगांव तो, गजानना
मुस्काय ॥
९४६ क्यों रे तात्या प्राण तजे,
हिमालया को जाय। आतम हत्या
पाप है, हताश मत हो जाय ॥
९४७ आज प्राण भी दे दिया,
प्रपंच से घबराय। भोग भोगने के लिये, जनम
दूसरा पाय ॥
९४८ मत जा पगले हिमालया,
गंगा डूब न मर। पल को भी मत रुक इधर, तू जा
सीधा घर ॥
९४९ तात्या तेरे खेत में,
महिषासुर का स्थान। बबूल पूरब की तरफ, मध्य
रात सुनसान ॥
९५० खोद अकेला जाय के,
जमीन तू गज एक। धन तुझको इतना मिले, बचे ना
करजा एक ॥
९५१ तात्या तब खुश होय के,
लौटा अपने गांव। रात खेत में जाय के, लगा जमीन
खुदाय ॥
९५२ जमीन खोदी एक गज,
कलश एक टकराय। मुहर चार सौ स्वर्ण की, कलश माय
मिल जाय ॥
९५३ स्वर्ण मोहरें पाय कर,
वापस घर को आत। जय जय गजानना कहे, नाचे बण्डू
तात ॥
९५४ भाव अनन्या श्री शरण,
तात्याजी आ जाय। फिजूल खर्ची रोक दे, गजानना
समझाय ॥
९५५ परिजन रिश्तेदार सब,
सुख के भागीदार। दुख में केवल ईश्वर, भजियो
बारम्बार ॥
९५६ श्री की शिक्षा उपयोगी,
तात्या जी गहिलीन। स्वधर्म का पालन किया, चित्त
गजानन लीन ॥
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-14 |
उंकारेश्वर
नर्मदा,
रोके प्राणान्त
९५७ बंकट बजरंग मारोती,
मार्तण्ड पाटील। चारों श्री दर्शन
आयें, संग साथ सब मिल ॥
९५८ श्री से विनय करें चलो,
उंकारेश्वर स्थान। सोमवती के पर्व पर, करें
नर्मदा स्नान ॥
९५९ सोमवती के स्नान की,
पुराण महिमा गाय। आप हमारे साथ चलें, पर्व सफल
हो जाय ॥
९६० मेरे पासहि
नर्मदा, क्यों जाऊं उंकार। मैं मठ में ही
बैठकर, करूं नर्मदा पार ॥
९६१ ना कहते श्री गजानना,
भगतन पकड़े पैर। चारों जिद करने लगे, विनय सुनो
इस बेर ॥
९६२ फिर समझाय गजानना,
मंदिर में जो कूप। इसमें है जो जल भरा, वही
नर्मदा रूप ॥
९६३ इसे छोड़ जाऊॅं वहाँ,
रुष्ट नर्मदा होय। जिद न करो जाओ
तुम्ही, सब शुभ मंगल होय ॥
९६४ जिद फिर भी ना छोड़ते,
ले जायेंगे साथ। कोसोगे विपरीत घटे, कहें
गजानन नाथ ॥
९६५ इस चर्चा के बाद सभी,
उंकारेश्वर जांय। सोमवती के पर्व पर, नदी घाट
भर जांय ॥
९६६ भक्तन ऐसी भीड़ पड़ी,
तिल भर जगह न पाय। स्नान,बेल पूजन,भजन, आरत
में रम जाय ॥
९६७ मंदिर में अभिषेक करें,
बाहर बर्फी खांय। गर्दी ऐसी हो रही, शब्द समझ
ना पाय ॥
९६८ नहान पावन हो रहा,
सजी नर्मदा माय। पदमासन बैठे वहां, श्री
गजानना साय ॥
९६९ चारों भक्तों ने किया,
दर्शन श्री उंकार। वापस जाने के लिये, नाव खड़ी
तैयार ॥
९७० बैठ नाव में चले सभी,स्टेशन मोरटका। नदी बीच चट्टान अड़ी, नाव लगा धक्का ॥
९७१ नाव तले पटिया फटा,
एक छिद्र हो जाय। जल भीतर आने लगा, भक्त सभी
घबराय ॥
९७२ नाविक कूदे नाव से,
गजानना थे शान्त। गण गण गणात गा रहे, भजन लीन
थे सन्त ॥
९७३ मार्तण्ड बजरंग मारोती बंकट हुए उदास। आये
थे हरिभजन को, उलटी गिनते सांस ॥
९७४ सदगुरु माफ करें हमें
, मानी ना तब बात। सजा उसी की मिल रही, मैया
करती घात ॥
९७५ अब ना करे उपेक्षा,
शब्द आपका एक। गुरु गजानन बचाय लो, भक्त आपके
नेक ॥
९७६ श्री जी फिर करने लगे,
स्तवन नर्मदा माय। दया करो देवि नर्मदा,अशुभ
नाशिनी माय ॥
९७७ जल बाहर जाने लगा,
नैया ऊपर आय। नैया साथै नर्मदा, मैया दरश
दिखाय ॥
९७८ कटि तक भीगे वस्त्र थे,
घुंघराले थे केश। देवी रेवा दरश दिये, मछुवारन
के भेष ॥
९७९ रेवा तट नैया लगी,
बची सभी की जान। मछुवारन का कर रहे, सभी भक्त गुण गान ॥
९८० परिचय उसका पूछते,
आप कहाँ से कौन। कन्या
में उंकार की,नाम नर्मदा होन ॥
९८१ नमन करे वह गजानना,
फिर जल मध्य समाय। बिजली जस नभमें दिखे,बादल में छिप जाय ॥
९८२ सदगुरु से पूछन लगा,
बंकट बारम्बार। देवीजी वह कौन थी, लुप्त हुई
जो नार ॥
९८३ श्री कहते साक्षात सुता,
ऊंकारेश्वर होय | दुविधा मन में ना रखो, भक्त
तारिणी होय ॥
९८४ नरमदे हर हर बोलो,
जय जय नरमदे हर। गण गण गणांत बोते बोल,जय
गजानना हर ॥
विडा श्रीजी भेजते माधवनाथ सन्त
९८५ चित्रकूट के सन्त इक,
माधवनाथ कहाय। उनके शिष्य सदाशिवा, श्री दर्शन
को आय ॥
९८६ सदाशिवा का मित्र भी,
संग एक आ जाय। दोनों को सम्मुख बिठा, श्री
भोजन करवाय ॥
९८७ दोनों को छाती लगा,
सन्त प्रेम दिखलाय। यथायोग्य सत्कार कर, उनको
बिदा कराय ॥
९८८ माधव सन्ता से कहो,
जाकर सदाशिवाय। साथै भोजन हुवा विडा, श्री
आपको भिजाय ॥
९८९ पान विडा श्री जो दिये,
नाथ गुरु को देव। क्या सचमुच शेगांव को, आप
गये गुरू देव ॥
९९० माधवनाथ कहे शिष्यों,
उस दिन ऐसा होय। भोजन समय गजानना, स्मरण किया
मम होय ॥
९९१ हम संतों की भेंट तो,
इसी तरह से होय। शरीर दोनों के पृथक, प्राण एक
ही होय ॥
९९२ गहरा यह ज्ञान
अभी, योग करे से जान। सिद्ध योग योगी करे, योग बड़ा बलवान ॥
९९३ गण गण गणात बोते बोल,
जय जय गजानना। राणा हैं शेगांव के, योगी
गजानना ॥
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