Gajanan Maharaj

Wednesday, May 27, 2020

Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-08


अध्याय आठ


खण्डू संकट में घिरे श्री धीरज बंधवाय


४९६ देशमूख पाटील का, बैर पुराना होय। गुटबाजी ऐसी जहां, सुख की होली होय
४९७ जैसे मनुज शरीर को, टी. बी. रोग सताय। गुटबाजी भी समाजको, उसी तरह खा जाय
४९८ ताल किनारे एक दिन, घटना ऐसी होय। एक दलित पाटील से, खटपट करता होय
४९९ अधिकारी था गांव का, खण्डूजी पाटील। देशमुखों के जोरपर, दलित हुआ गाफील
५०० मुंहजोरी करने लगा, खण्डूजी समझाय। छोटे मुंहसे बात बड़ी, दलिता नहीं सुहाय
५०१ मरिया नामक वह दलित, फिर भी चुप ना होय। बकबक करता साथमे, हावभाव भी होय
५०२ इस विवाद के मूल में, छोटी सी तकरार। तहसिल चिठ्ठी पहुँचाने, दलित किया इनकार
५०३ गुस्से में खण्डू पाटिल, डण्डा दिया चलाय। हाथ दलित का टूटता, गिरा भूमि पर
५०४ सगे सम्बन्धी दलित के, पहुँचे तत्काल। देशमुखों के द्वार पर, उसको देते डाल
५०५ समझा टूटे हाथ का, देशमुखों ने हाल। खुराफात सूझी उन्हें, फैलाया इक जाल
५०६ दलित को लिया साथ में, पहुँचे कचहरि जाय। लिखवाई फर्याद वहां, हाकिम को उकसाय
५०७ गिरफ़्तार मुलजिम करो, हाकिम हुक्म सुनाय। चर्चा फैली गांव में, पाटिल पहुंची जाय
५०८ खण्डूजी घबराय कर, चिन्तातुर हो जाय। हाथ पड़ेगी हथकड़ी, बेड़ी पैरों माय
५०९ इसी गांव शेगांव में, घूमा जैसे शेर। हवलदार ले जायगा, डाल बेड़ियां पैर
५१० इज्जतदारों को नहीं, सहन होत अपमान। इज्जत जाने से भली, चली जाय खुद जान
५११ खण्डू के बन्धू सभी, घबराने लग जाय। तभी श्री महाराज की, याद उसे जाय
५१२ महाराज को जाय के, सारी बात बताय। देशमुखों की मण्डली, मुझको कैद कराय
५१३ राई सी एक भूल को, परबत दिया बनाय। हवलदार कल आयगा, हथकड़ियां पहनाय
५१४ इज्जत मेरी बचाय लो, श्री गजानन महाराज। या फिर इस तलवार से, मुझे चीर दो आज
५१५ मेरी इज्जत द्रौपदी, कौरव देशमुखाय। आप कृष्ण भगवान सम, रक्षा करियो आय
५१६ अंखियन से आंसू बहे, खण्डू रोता जाय। उसका सब परिवार भी, शोकमग्न हो जाय
५१७ श्री जी ने पाटील को, छाती लिया लगाय। संकट से घबराय मत, शब्दों से समझाय
५१८ तुम पाटिल वा देशमुख, एक जाति के होय। फिर भी आपस लड़ रहे, स्वारथ कारज दोय
५१९ स्वारथ काजे ही लड़े, कौरव पाण्डव भाय। न्याय दॄष्टि से कृष्णजी, पाण्डव किये सहाय
५२० अस कह श्री आशीष दें, तिल भर डरियो नाय। तुझ को बेड़ी ना पड़े, दुश्मन जोर लगाय
५२१ श्री जी के आशीष से,सिद्ध हुए निर्दो | मुक्त हुए आरोप से, सन्त किये जस घोष
५२२ खण्डू अनुनय विनय से, श्री को संग लिवाय। अपने घर उनको रखे, आदर प्रेम जताय
 
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-08
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-08


तैलंगी विद्वान को देते श्री जी सीख


५२३ एक दिवस महाराजजी, करते थे विश्राम। आय अचानक द्वार पर, तैलंगी विद्वान॥
५२४ जागें श्रीजी मंत्र से, ऐसा करें विचार। शोर मचाएं जोर से, गलत मंत्र उच्चार
५२५ जाग उठे महराज जी, देय उन्हें फटकार। वैदिक होकर कर रहे, गलत वेद उच्चार
५२६ मोक्षदायिनी यह विद्या, रखिये इसका मान। रोजगार साधन नहीं, रखो स्वरों का ज्ञान
५२७ ऐसा कह करने लगे, श्रीमुख मंत्रोच्चार। जस वशिष्ठ गुरु कर रहे, स्वयं वेद उच्चार
५२८ तैलंगी सुन चकित हुए, मन ही मन भयभीत। दीपक की ना पूछ हो, सूरज होय उदीत
५२९ पागल यह ज्ञानी नहीं, स्वयं वेद का रूप। ईश्वर ही साक्षात हैं, जीवन मुक्त स्वरुप
५३० आज पुराने पुण्य से, हम दरशन पा जाय। श्री से पाकर दक्षिणा, बामन वापस जायं

ब्रम्हगीर को गजानना तत्वज्ञान बतलाय

५३१ ख्याति मिले खुश होय वह, जो भी दम्भी होय। सच्चे सन्त गजानना, ख्यात पसन्द होय
५३२ कृष्णाजी पाटील थे, खण्डूजी के भ्रात। मालिक थे इक बाग के, वहां पधारे नाथ
५३३ एक शिवालय बाग में, पास वृक्ष था नीम। नीम तले इक ओटला, सन्त हुए आसीन
५३४ कृष्णाजी से कह रहे, यह भोले का स्थान। नीलकण्ठ शिवजी यहां, रमते विराजमान
५३५ शिवजी के सानिध्य में, यह साधू रह जाय। इसी ओटले पर अगर, छत छाया हो जाय
५३६ कृष्णाजी ने उसी समय, छह पतरे मंगवाय। तान दिया छप्पर वहां, महाराज रह जाय
५३७ राजा रहता हो जहां, राजधानि कहलाय। गजानन जिस बाग रहे, तीर्थ क्षेत्र बन जाय
५३८ तुकाराम और भास्कर, भक्त दोय थे साथ। भोज व्यवस्था का जिम्मा, कृष्णाजी के हाथ
५३९ भोजन जब तैयार हो, श्रीजी को जिमवाय। बाद भोज कृष्णा पाटिल, परसादी पा जाय
५४० कुछ गोसाई एक दिन, पहुंचे उस ठांव। डेरा डाला बाग में, नीम वृक्ष की छांव
५४१ पाटिल से कहने लगे, हम तीरथवासी। गंगा लेकर जा रहे, रामेश्वर कासी
५४२ गंगोत्री यमुनोतरी, बदरीजी केदार। हिंगलाज, गिरनार से, तीरथ भ्रमण अपार
५४३ साथ हमारे ब्रम्हगिरी, गोसाई महाराज। सबके कहलाये गुरू, सन्तों के सरताज
५४४ आज भाग तेरा जगा, आये तेरे द्वार। हलवा पूरी भोग हो, फिर गांजा आहार
५४५ तीन दिन विश्राम कर, चौथे दिन हम जायं। सेवा का अवसर मिले, नहीं चूकना भाय
५४६ इस पागल अवधूत का, तुम पोषण करते। गोसाई को दान करो, क्या विचार करते
५४७ गर्दभ को तो पालते, गाय मारते लात। मति तेरी मारी गई, यह विचार की बात
५४८ वेदों का है ज्ञान हम, बैरागी गोसायं। श्रवण करोगे ग्रंथ अगर, पारायण कर जायं
५४९ गोसाई की बात सुन, पाटिलजी कह जायं। कल होगी हलवा पुरी, आज भाकरी खाय
५५० गांजे की तो बात क्या, जितना चाहे पायं। उस पतरे की छांव में, शिवजी रहे बसायं
५५१ जमात जीमे भाकरी, और करे विश्राम। सांझ हुई तो ब्रम्हगिरी, बाँचे गीता ज्ञान
५५२ ब्रम्हगिरी जी अर्थ करें, 'नैनं छिन्दति' श्लोक श्लोक निरूपण ठीक नहीं, चर्चा करते लोक
५५३ पोथी सुन ली अब चले, दर्शन गजाननाय। श्री का सब गुणगान करें, ब्रम्हगिरी खुश नाय
५५४ पतरे नीचे खाट पर, श्री जी विराजमान। गोसाई पहुंचे वहा, गांजा चिलम चढ़ान
५५५ भास्कर चिलम बना रहे, महाराज जी पाय। इक चिनगारी चिलम से, गादी पर गिर जाय
५५६ नजर किसी की ना पडी, पलंग पकडी आग क्षण भर में जलने लगी, पलंग लकड़ी साग
५५७ कहे भास्कर छोड़िये, पलंग सदगुरु नाथ | आग बुझाने के लिये, पानी लाऊं नाथ
५५८ मना करें  श्री गजानना, आगी नहीं बुझाय। आओ बैठो पलंग पर, ब्रम्हगीर बुलवाय
५५९ तेरे गीता ज्ञान की, आज परिक्षा होय। 'नैनं छिन्दति' श्लोक का, अब प्रायोगिक होय
५६० गोसाई को भास्कर, पलंग पर बैठाव। आदर सहित पलंग पर, विराजमान कराव
५६१ श्री की आज्ञा पाय के, भास्कर आगे आय। ब्रम्हगिरी का हाथ पकड़, खेंचन वह लग जाय
५६२ पलंग पकड़ी आग अब, जोर पकड़ती जाय। धू धू लपट निकल रही, श्री किंचित हिलाय
५६३ सन्त प्रवर श्री गजानना, लीला शतयुग बाद। जस अगनी के बीच में, खड़े भक्त प्रहलाद
५६४ ब्रम्हगीर घबरायकर, भास्कर से घिघियाय। मैं श्री को जाना नहीं, भूल हुई रे भाय
५६५ भास्कर ने कुछ ना सुनी, खींच पलंग के पास। ले जाकर आगे किया, खड़ा गजानन पास
५६६ 'नैनं देहति पावक' जैसा तुम समझाय। आओ गोसाई स्वयं, सच करके दिखलाय
५६७ महाराज की बात सुन, गोसाई घबराय। पेट भरन साधू बना, हलवा काज गुसाय
५६८ क्षमा करें अपराध मम, मेरी भूल महान। श्री को मैं पागल कहा, करें अभय का दान
५६९ उतरें आप पलंग से, श्री से विनय करे। वासी सब शेगांव के, कहते डरे डरे
५७० लोक विनन्ति मान कर, उतर गये श्रीमान। पल भर में ही पलंग भी, नीचे गिरता आन
५७१ ब्रम्हगिरी चरणों गिरा, दूर हुआ अभिमान। मल बाकी कैसे रहे, जब गंगाजल स्नान
५७२ उसी रात गोसाई को, बोध दिये महाराज। राख लगा बैराग लिया, फिर क्यों प्रवचन काज
५७३ अनुभव बिना बोलिये, बेमतलब यह बोल। अज्ञानी के बोल दें, संस्कृति में विष घोल
५७४ हलवा पूरी वासते, दर दर ना भटकाय। सार नहीं कुछ पायगा, क्यूं जिन्दगी गंवाय
५७५ शिष्यों सह गायब हुआ, ब्रम्हगिरी गोसाई। जले पलंग को देखने, आते लोग लुगाई
५७६ गण गण गणात बोते बोल, जय जय गजानना। राणा हैं शेगांव के, योगी गजानना

   श्री हरिहरार्पणमस्तु शुभं भवतु

  ( आठवाँ अध्याय समाप्त )




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