अध्याय सात
मल्ल युद्ध मर्दन किया हरी पाटील का मान
४१४ महादजी के पुत्र दो, कुकाजी कड़ताजी। पाटील वंश गणेश कुल, मां लक्ष्मी राजी ॥
४१५ घर में था सोना भरा, भारी जमिंदारी। सन्तों की सेवा करें, बड़भागी भारी ॥
४१६ गोमाजी महाराज का, भक्त घराना होय। कडता के छः पुत्र थे, कुका पुत्र ना कोय ॥
४१७ कड़ताजी तो ना रहे, गमन किया परलोक। पालन छः सन्तान का, भार कुकाजी तोक ॥
४१८ खण्डू गणपति नारायण, मारुति हरि किसना। यही नाम सन्तान के, काम कुश्ति लड़ना ॥
४१९ कूकाजी के बाद में, खण्डु जी सिरमौर। मारुति उत्सव गांव में, पाटिल बन्धु जोर ॥
४२० पाटिल बन्धू जो कहें, वही गांव में होन। मारपीट झग़डे करें, विरोध करता कौन ॥
४२१ मुंह में आये सो बकैं, करैं न आयु विचार। सज्जन साधू सन्त संग, वैसा ही व्यवहार ॥
४२२ मन्दिर में महराज का, वे करते उपहास।
कहते क्यों रे पागले, खाता दलित छास ॥
४२३ आ कुस्ती हमसे लड़ा, देखें तेरा योग।
मारेंगे छोड़े नहीं, यदि ना करे प्रयोग ॥
४२४ श्रीजी उत्तर नाय दें, सुन लें उनके बोल। गुस्सा बिलकुल ना करें, मन लाते न मखोल ॥
४२५ रोज रोज व्यवहार यह ,दुखी भास्कर होय। महाराज से वह कहे, इधर न रहना होय ॥
४२६ पाटिल के षटपुत्र तो, होय गरे मगरूर।
धन सम्पति ताकत मिली, मद में रहते चूर ॥
४२७ समझायें श्री गजानना, भास्कर ना तज धीर।
परम भक्त मेरे सभी, ये पाटिल के वीर ॥
४२८ ये थोड़े उद्दण्ड मगर, हैं मन के भोले।
सन्तों की इन पर कृपा, हैं कुछ बड़बोले ॥
४२९ जमींदार उद्दण्ड तो, गुण उन का कहलाय। सत्ता की पहचान ये, बाघ से डरे गाय ॥
४३० नरम अगर तलवार हो, अगन अगर हो शीत। क्या उनका उपयोग फिर, ना ऐसी ना रीत ॥
४३१ बदलत समय सुभाव में, परिवरतन भी होय। मटमैला बरसात जल, जाड़े निरमल होय ॥
४३२ एक दिवस पाटिल हरी, मारुति मन्दिर आय| हाथ पकड़ महाराज का, कहता कुस्ति लड़ाय ॥
४३३ व्यंग करे बैठा यंहा, 'गणि गण गण' मत बोल। संग अखाडा चल मेरे, खोलूं तेरी पोल ॥
४३४ आज हराउंगा तुझे, बुलन्द तेरा नाम। यदि मुझको तू चित करे, दूंगा तुझे इनाम ॥
४३५ श्री ने उसकी मान ली, पहुँच अखाड़े जायं। फिर कौतुक ऐसा करें, बैठ सुखासन जांय ॥
४३६ हरी अगर कहलाय तू, पहलवान दमदार। थोड़ा मुझे उठाय ले, मल्लों के सरदार ॥
४३७ हरि कोशिश करने लगा, कोशिश थी बेकार। दांव पेंच भी व्यर्थ गये, हरी पसीना तार ॥
४३८ श्री गजानना हिले नहीं, हरी हिलोरे खाय। मन ही मन सोचन लगा, परबत जैसी काय ॥
४३९ देखन में दुबले लगे, ताकत भारी होय। इनके आगे स्यार हम, यह गजराजा होय ॥
४४० रहे भौंकते श्वान सम, बाघ देय ना कान। मन मन हरी नमन करे, जय जय हे गजानन ॥
४४१ महाराज हरि से कहें, अब दे हमें इनाम। या फिर कुस्ती में हरा, ओय रे पहलवान ॥
४४२ कुश्ती दंगल शौक तो, मर्दाना है खेल। बाल किशन बलरामजी,दोनों भाई खेल ॥
४४३ सारे गोकुल बाल को, किशन किये बलवान। तुम भी कुछ वैसा करो, मेरा यही इनाम ॥
४४४ कृपा आपकी होय तो, सब बालक बलवान। हरि पाटील यह बोलते, छोड़ दिया अभिमान ॥
४४५ पाटील बन्धु शेष सब, हरी पिलावे डाँट। तू जोगीसे डर रहा, समझ न आवे बात ॥
४४६ हम पाटिल परिवार के, गांव के जमींदार। पांव जोगड़े सिर झुके, यह विचार दुश्वार ॥
४४७ करता साधू वेश में, उलटे सीधे काम। भोले लोग लुगाई को, ठगना उसका काम ॥
४४८ पागल के पाखण्ड से, जन की रक्षा होय। यह कर्तव्य हमारा है, इसमे त्रुटि ना होय ॥
४४९ बिना परीक्षा साधु का, नाही करो सम्मान। परखा गया कसौटी पर, शुध सोना वह जान ॥
४५० अब पाटिल बंधू चले, साधु परीक्षा काज। गन्ने का गठ्ठर लिये, मन्दिर मारुती राज ॥
४५१ हरी न कुछ बोला मगर, बाक़ी करें सवाल। ओ पगले, तू खायगा , गन्ने लाये बाल ॥
४५२ खाना हो गन्ना अगर, शर्त मान ले एक। गन्ने से मारें तुझे, अंग उठे ना रेख ॥
४५३ चोट पड़े पर देह पर, उठे न कोई लकीर। मानेंगे सच्चा तुझे, योगी सन्त फ़क़ीर ॥
४५४ श्रीजी कुछ बोले नहीं, सुन बालोंकी बात। क्षमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात ॥
४५५ पाटिल सुत मारुति कहे, साधू ना तैयार। यह तो भैय्या डर गया, खाय न गन्ना मार ॥
४५६ गणपति पाटिल यूँ कहे, मौन सम्मति होय। फिर सारे भाई मिले, श्री पर हमला होय ॥
४५७ हमला होते देखकर, नर नारी भग जाय। एक अकेला भास्कर, उनको रोक न पाय ॥
४५८ समझाये मानो नहीं, अगर इन्हे तुम सन्त। दीन हीन ही मानकर, क्षमा करो गुणवन्त ॥
४५९ तुम पाटिल कुल दिवड़े, दया तुम्हारा धर्म। कर शिकार तो शेर का, नहीं मारना वर्म ॥
४६० इस पर पाटिल बाल कहे, सुनी तुम्हारी बात। जनता इसको मान दे, कहती योगी नाथ ॥
४६१ देखें इसका योग अब, या फिर खुलती पोल। देख तमाशा दूरसे, बीच न बोलो बोल ॥
४६२ फिर श्री को पीटन लगे, पाटिल की सन्तान। जस गेहूँ की बालियां, कूटे खेत किसान ॥
४६३ महाराज मुसकाय के, देखे उनकी ओर। एक दाग ना चोट का, तन पर नाही कोर ॥
४६४ बच्चों दुखते हाथ क्या, बैठो रस पिलवाय। भयातुर लड़के मगर, श्री चरणों लिपटाय ॥
४६५ गन्ना हाथ उठायकर, निचोड़ते महाराज। मधुरस भरते पात्रमे, धन्य धन्य महाराज ॥
४६६ गन्ना सारा निचोयकर, रस पीने को देय। बिन चरखी रस पायकर, बालवृंद खुश होय ॥
४६७ लीला श्री महाराजकी, दन्त कथा ना होय। यह तो शक्ति योगकी, जिसका पार न होय ॥
४६८ योग करो श्री गजानना, देते यह निर्देश। योग किये आरोग्य मिले, बलशाली हो देश ॥
४६९ देते सीख गजानना, योग करो सब कोय। भारत सारा योग से, ताकतवर तो होय ॥
४७० बालक सारे नमन करें, और गमन कर जाय। खण्डू पाटिल सामने, सारी बात बताय ॥
४७१ पाटिल ने किस्सा सुना, और चकित रह जाय। श्री दरशन के वासते, तुरत दौड़ता आय ॥
४७२ खण्डु फिर जाने लगा, प्रतिदिन दर्शन आस। श्री पर श्रद्धा बढ़ गई, श्रद्धा संग विश्वास ॥
पुत्र पाय खण्डू पाटील भीखू नाम कहाय
४७३ खण्डू से कूका कहे, तू नित दर्शन जाय। महाराज के सामने, क्यों गूंगा हो जाय ॥
४७४ मैं अब बूढ़ा हो गया, तुझे नहीं सन्तान। बिनती कर महराज से, सन्तति करें प्रदान ॥
४७५ यदि वे सच्चे सन्त तो, इच्छा पूरण होय। लाभ उठा तू सन्त का, सुत दे देवें तोय ॥
४७६ कूकाजी ने जस कहा, तस खण्डू कर जाय। पुत्र जनम हित नाथ से, बिनती वह कर जाय ॥
४७७ बोले तब महाराजजी, भला हुई क्या बात। काहे याचक बन रहे, धन बल की बरसात ॥
४७८ मालिक खेत दुकान का, तू करखानेदार । धन सत्ता के सामने, हर कोई लाचार ॥
४७९ ब्रम्हदेव दें पुत्र तुझे, तू जो दे आदेश। तेरा शब्द न टल सकें, विदर्भ के इस देश ॥
४८० खण्डू फिर कहने लगा, ना बस की यह बात। फसल होय बरसा गिरे, वह ना मनुज बिसात ॥
४८१ वरषा ना बरसाय तो, खेती में नहिं जान। वरषा बरसे बाद ही, करतब करें किसान ॥
४८२ इसी तरह सन्तान सुख, भगवन्ता के हाथ। मैं तव चरणों में पड़ा, रखो निपूत न नाथ ॥
४८३ अरज सुनी निज भक्त की, विहंसे श्री महराज । पूत रतन भगवन्त दे, विनय करू तव काज ॥
४८४ विनय सुनेंगे वे मेरी, भीख तुझे मिल जाय। ईश कृपा से पूत मिले, भीखू नाम सुहाय ॥
४८५ पूत मिले तू धनपती, बामन भोज कराव। भोजन में दो आमरस, हरिक साल जिमवाव ॥
४८६ श्रीजी के आशीष से, खण्डू बालक पाय। खण्डू कूका दोय जन, आनन्दित हरषाय ॥
४८७ कूका पोता पाय कर, खुशियां खूब मनाय। गुड़ गेहूँ का दान कर, मिठाइयाँ बटवाय ॥
४८८ शिशु का नाम रखा भीखू, ब्राह्मण भोज कराय। शुक्ल पक्ष के चाँद सा, बालक बढ़ता जाय ॥
४८९ वैभव पाटिल का बढ़ा, दुखी देशमुख होय। देशमुख पाटील का बैर पुराना होय ॥
४९० गुट दोनों विपरीत थे, जैसे अंक छतीस। सन्धि मिले तो घात करें, मनमे रहती टीस ॥
४९१ कुछी समय के बाद में, निधन कुकाजी होय। जस खण्डू के शीश से, छत्रहि टूटा होय ॥
४९२ जिस काका के कारणे, खण्डू था बरजोर। छीन लिया हरि ने उसे, अब खण्डू कमजोर ॥
४९३ देशमुखों को मिल गया, मौका ऐसा एक। पाटिल पर कीचड़ पड़े, बात हुई अतिरेक ॥
४९४ घटना का वर्णन सुनो, आगे का अध्याय। चरित गजानन का पढ़ो, मन में श्रद्धा लाय ॥
४९५ गण गण गणात बोते बोल, जय जय गजानना। राणा हैं शेगांव के, योगी गजानना ॥
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