अध्याय नौ
महिमा न्यारी सन्त की पशु भी माने बात
५७७ टाकलिकर गोविन्द
बुवा, प्रसिद्ध कीर्तनकार। कीर्तन को शेगांव में, आ पहुंचे एक बार ॥
५७८ एक पुरातन शिव
मन्दिर, मोटे का कहलाय। कथाकार उतरे वहां, घोडा देय बन्धाय ॥
५७९ घोडा उनका उधमी, हिनहिनाय दिनरात। कुत्ते सा काटे कभी, कभी मारता लात ॥
५८० बार-बार रस्सी
तोड़े, जंगल भागा जाय। ऊधम करता ही रहे, शान्त नहीं रह पाय ॥
५८१ अंधियारी एक रात
थी, उलक करे आवाज। टिटेहरी टीटी करे, चमगादड़ का राज ॥
५८२ काली नीरव
रातमें, सन्नाटा छा जाय। महाराज पहुंचे वहां, घोडा जहां बन्धाय ॥
५८३ अवतारी अवतार ले, प्रकट धरा पर होय। दुष्ट दुराचारी सुधरे, यही प्रयोजन होय ॥
५८४ घोडा जहाँ खड़ा
वहां, पहुंचे श्री महाराज। चारों पैरों मध्य में, सोवत श्री महाराज ॥
५८५ जपे मंत्र
गणगणात का, अर्थ न बूझा जाय। जीव ब्रम्ह का अंश है, पृथक न समझा जाय ॥
५८६ अश्व पदों के
मध्य में, सोवत गजानना। भजन 'गण गणा' गा रहे, योगी
गजानना ॥
५८७ उपद्रवी यह अश्व
क्यों, खड़ा शान्त स्थिर होय। गोविन्द कीर्तनकारजी, देख अचम्भित होय ॥
५८८ निकट अश्व जाते
वहां, सोवत श्री महाराज। समझ गये श्री संग ही, अश्व शान्ति का राज ॥
५८९ कस्तूरी की
सुगन्ध ज्यों, सब दुर्गन्ध मिटाय। गजानना सान्निध्य से, घोडा स्थिर हो जाय ॥
५९० श्री चरणोंपर
माथ रखे, टाकली के गोविन्द। विघ्न विनाशक विनायका, आप ही गजानन्द ॥
५९१ अश्व बड़ा उद्दंड
यह, काबू में नहीं आय। खड़ा दुलत्ती झाड़ता, चलत चलत उछलाय ॥
५९२ इसे बेचने मैं
चला, ग्राहक मिला न कोय। मुफ्त दान देना चाहा, तो भी ना ले कोय ॥
५९३ ग्वाले के घर
बाघ हो, कुछ उपयोगी नाय। घोडा कीर्तनकार का दुष्ट हो गया
गाय ॥
५९४ महाराज मुसकाय कर,
घोड़े से कह जाय। शिव के नन्दी से रहियो, मस्ती
करियो नाय ॥
५९५ अगले दिन गोविन्दजी, श्री दर्शन को आय। घोड़े पर असवार उन्हें, देख सभी डर जाय ॥
५९६ सब कहते
गोविन्दजी, क्यों घोड़े को लाय। बाल, वृद्ध, नारी
यहाँ, दुष्ट हानि पहुचाय ॥
५९७ गोविन्दजी कहने
लगे, अब डरियो ना कोय। महाराज जी ने इसे, शान्त कर दिया होय ॥
५९८ फिर इमली के पेड़
से, बिन बान्धे रह जाय। हरी घास थी बाग में, मुंह ना उसे लगाय ॥
५९९ महिमा न्यारी
सन्त की, पशु भी माने बात | सुधरे
खेल हो सतचारी, गोविन्द गावत जात ॥
६०० घोडा लेकर चले
गये, गोविन्द अपने गांव। खल सुधरही सतसंगति, लीला लख शेगांव ॥
मन निर्मल होगा तभी कृपा ईश की होय
६०१ भक्तन भारी भीड़
पड़े, रोजाना शेगांव। दरशन श्री महाराज के, हर दिल में उच्छाव ॥
६०२ बालापुर से दो
भगत, जब दरशन को आय। दरशन पाकर लौटते, आपस में
बतियाय ॥
६०३ अबकी बारी आय तो, सूखा गांजा लाय। महाराज खुश होयकर, कृपा करेंगे भाय ॥
६०४ मावा बरफी सब
लाते, हम गांजा ले आयं। धोती गंठिया बान्ध लो, भूल नहीं हम जायं ॥
६०५ फिर जब अगली बार
को, वे दरशन को आय। गांजा लाना भूल कर, खाली हाथों आय ॥
६०६ श्री चरणों माथा
रखा, तभी याद आ जाय। मन विचार दोनों करें, अब के दूना लाय ॥
६०७ आये दरशन काज
फिर, जब वे अगली बार। भूल गये दोनों भगत, पिछला किया विचार ॥
६०८ भास्कर से कहने
लगे, गजानन महाराज। देखो कैसी हो गई, जग की रीती आज ॥
६०९ गाठ बान्ध कर
प्रण करें, फिर भी चीज न लाय। मन्नत मन में मानते, हाथ हिलाते आय ॥
६१० ब्राम्हण हैं ये
जात से, फिर क्यों झूठे बोल। छोड़ दिया निज धर्म क्या, बोल में नहीं मोल ॥
६११ शुध्द हृदय का
भाव हो, इच्छा पूरण होय। मन निर्मल होगा तभी, कृपा ईश की होय ॥
६१२ महाराज की बात
सुन, सुट दोनों हो जाय। गजानना सर्वज्ञ हैं, यह प्रचीति हो जाय ॥
६१३ फिर विचार दोनों
करें, कैसे भूल सुधार। गांजा ले आये चलो, यहीं गांव बाजार ॥
६१४ श्रीजी तब कहने लगे, नहीं जाव बाजार। गांजा मुझे न चाहिये, मन में करो विचार ॥
६१५ कारज तो सध
जायेगा, अगले ही सप्ताह। हो जाये जब काम तो, पूरी करना चाह ॥
६१६ किन्तु बात इक
जान लो, मन में बान्धो गांठ। कर्म करो बिलकुल वही, मुख से जैसी बात ॥
६१७ पांच बार आना
यहां, शिवजी का है वास। किरपा से जिनकी हुए, कुबेर लखमीदास ॥
६१८ नमस्कार उनको
करो, छोड़ असत आचार। और अब नहीं भूलना, गांजे का व्यवहार ॥
६१९ श्रीजी का उपदेश
सुन, शिव के दर्शन पाय। दोनों बालापुर गये, व्रत पूरा हो जाय ॥
बालकृष्ण को करा दिये दर्शन रामदास
६२० बालापुर दूजी
कथा, श्रवण करें सब कोय। बालकृष्ण पुतलाबाई, पति पत्नी थे दोय ॥
६२१ धर्मात्मा दोनों
जाते, तीरथ हर एक साल। 'दासबोध' कुबड़ी कंथा, साथ रहे
चिरकाल ॥
६२३ पौष वद्य नवमी
छोड़ें, बालापुर की सांझ। रामदासि करताल कर, पुतलाबाई झांझ ॥
६२२ साधु रामदासी युगल, नहीं कोई अभिमान। भीख मांगते राह में, निवद चढ़ाते राम ॥
६२४ गावत गावत
रामधुन, यात्रा पैदल पांव। मेहकर खामगांव से, राजा देउल गांव ॥
६२५ माघ वद्य पहले
दिवस, सज्जनगढ़ आ जाय। रामदासि साधू वहाँ, ब्राम्हण भोज कराय ॥
६२६ दास नवमि उत्सव
मना, लौटे वापस जाय। आये थे जिस राह से, उससे वापस जाय ॥
६२७ तीरथ का यह क्रम
चला,उमर हो गई साठ। शिथिल देह जब हो गई, यात्रा नहीं करात ॥
६२८ माघ वद्य बारस
का दिन, निकट समाधि आय। बालकृष्ण जी बैठकर, अंखियन अश्रु बहाय ॥
६२९ रुंधे गले कर प्रार्थना, शैय्या पर सो जाय | रामदास
स्वामी समर्थ, सपने में कह जाय ॥
६३० अब सज्जनगढ़ ना
आना, तुझ पर किरपा होय। बालापुर तेरे घर ही, पर्व नवमी का होय ॥
६३१ दर्शन दूँगा मैं
तुझे, आकर तेरे द्वार। वचन हमारा है तुझे, कर लेना एतबार ॥
६३२ सपने में स्वामी
दिखे, मन आनन्द समाय। बालकृष्ण पत्नी सहित, घर वापस आ जाय ॥
६३३ माघ वद्य पहला
दिवस, जब अगला आ जाय। रामनवमि के पर्व का, शुभारम्भ हो जाय ॥
६३४ दास बोध का पाठ
अरु, हरि कीर्तन भी होय। दोपहरी ब्राम्हण भोजन, संध्या आरत होय ॥
६३५ बालापुर के लोग
से, चन्दा भी मिल जाय। समारोह उत्साह से, नौ दिन तक मन जाय ॥
६३६ नवम दिवस की
दोपहरी, घटना एक घट जाय। बालकृष्ण के द्वार पर, गजानना आ जाय ॥
६३७ घर अन्दर
श्रीराम का, होता था अभिषेक। रामदासि को भक्तगण, खबर देय यह नेक ॥
६३८ चरण गजानन के
पड़े, यह तो शुभ है बात। मन मेरे श्री समर्थ की, आतुरता से बाट ॥
६३९ नवमी को दर्शन
देऊँ, वचन उन्हीं का होय। स्वामी वचन असत्य हों, ऐसा कभी न होय ॥
६४० इधर द्वार पर
गजानना, खड़े करें उद्घोष। 'जय जय
रघुवीरा' कहें, और
सुनाएं श्लोक ॥
६४१ वाणी श्री जी की
सुनी, बुवा द्वार पर आय। निज आनन्द गजानना, के दरशन हो जाय ॥
६४२ बालकृष्ण चरणों
झुके, चमत्कार हो जाय। गजानना के स्थान पर, श्री समर्थ दिख जाय ॥
६४३ नयनों में आनन्द
के, अंसुवन लगे झराय। किन्तु अरे फिर सामने, गजानना दिख जाय ॥
६४४ पल में दिखें
गजानना, पल में स्वामी समर्थ। बालकृष्ण चकरा गये, समझ न पाये अर्थ ॥
६४५ गजानना फिर
प्रेम से, रामदासि समझाय। मैं ही तेरा समर्थ हूं, मत मन में चकराय ॥
६४६ मैं सजनगढ़ का
वासी, अब बस्ती शेगांव। वहां वचन जैसा दिया, नवमी तेरे गांव ॥
६४७ तू शरीर को
देखता, नहिं आतम का ज्ञान। रामदास गुरु मैं तेरा, नहीं भरम का स्थान ॥
६४८ चल भीतर ले चल
मुझे, दे आसन को पाट। कह श्री भीतर आ गये, हुए विराजित पाट ॥
६४९ रामदासि मन में मगर, उलझन रही पड़ी। श्री समर्थ सपना दिया, रात तीसरी घड़ी ॥
६५० मैं ही वेश
गजानना, बसूं विदर्भ प्रदेश। बिन संशय पूजा करो, मन में करो ना क्लेश ॥
६५१ बालकृष्ण सन्तोष
से, चरणन शीश नवाय। लीला श्री महराज की, मेरी समझ न आय ॥
६५२ सपने दर्शन देय
कर, उलझन दी सुलझाय। नवमी उत्सव सफल हुआ, भाग मेरा खुल जाय ॥
६५३ अब बिनती मेरी
सुनो, पूरण करियो आस। बालापुर महराजश्री, कुछ दिन करें निवास ॥
६५४ फिर आने का वचन
दे, चले गये शेगांव। लीला श्री महराज की, बुवा समझ ना पाव ॥
६५५ गण गण गणात बोते
बोल, जय जय गजानना। राणा हैं शेगांव के, योगी गजानना ॥
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