Gajanan Maharaj

Wednesday, May 27, 2020

Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-06


अध्याय छः

बर्र उठी सब भागते सन्त परीक्षा लेत


३३७ बंकट घर महाराज रहे, तब यह लीला होय। महिना भादौ खेत में, मकई भुट्टे होय॥
३३८ बंकटजी महाराज को, खेत लिवा ले जायं। संग संग महाराज के, भक्तन भी जाय
३३९ कुवे पास इमली नीचे, सभी लोग जायं। भुट्टे सेंकन वास्ते, अंगीठी सिलगाय
३४० अंगीठी उठता धुवां, इमली ऊपर जाय। ऊपर छर्ता बर्र का, बर्र लगी गर्राय
३४१ छत्ते की मधुमक्खियां, यहां वहां बिखराय।  भुट्टे खाना छोड़कर, सब भक्तन भग जाय
३४२ कोई कम्बल ओढ़ कर, अपने प्राण बचाय  श्रीजी बैठे स्थान पर, विचार में पड़ जाय
३४३ छत्ता मैं, माखी मैं ही, मैं ही मक्खी रूप।  मैं ही भुट्टा खाय रहा, मेरे सभी स्वरूप
३४४ निजानन्द में लीन हो, झूम उठे महराज। बर्र हजारों झूमती, तन पर श्री महाराज
३४५ बर्रें उनको काट रहीं, कांटे चुभे शरीर   पर श्री को परवाह नहीं, ब्रम्हनिष्ठ थे धीर
३४६ बंकट मन पछताय रहे, मारी गइ मति मोर। मम कारण महाराज को, दुःख होत घनघोर
३४७ ऐसा कैसा शिष्य मैं, गुरु को दुख पहुंचाय। कोसत खोटे भाग को, श्री के समीप जाय
३४८ श्री जी मन की जानते, वे कौतुक दिखलायं। कहें बर्र से जाय के, छत्ते में घुस जाय
३४९ भक्त हमारा नेक है, तुम ना काटो कोय। सुन आज्ञा महाराज की, बर्रें गायब होय
३५० वापस छत्ते में जाती, माखी बंकट देखि।  महाराज हंसकर कहें, खूप खिलाई माखि
३५१ जहरीली जब माखियां, बैठी मेरे अंग।  बरफी लड्डू के भगत, छोड़ गये सब संग
३५२ संकट हो जब सामने, कोई ना दे साथ।  एक ईश्वर साथ दे, है विचार की बात
३५३ लडडू बरफी खात रहें, बर्र आय भग जाय।  वे भगतन हैं स्वार्थी, इसमें संशय नाय
३५४ बंकट फिर पछताय के, कहता गुरु महाराज। मैं पापी क्यों आप को, इत ले आया आज
३५५ माखी काटे सूज गया, प्रभु आपका शरीर। दरद दूर कैसे करूं, बतलाओ तदबीर
३५६ अगणित माखी डस गई, तव शरीर बेहाल। सुनार एक बुलाय कर, कण्टक देय निकाल
३५७ उदास भक्तन देखकर, देव बन्धाये धीर। डसना उनका धर्म था, मुझको ना कुछ पीर
३५८ वो माखी के रूप में, सचिदनन्द भगवान।  मेरी देह बसे वही, मैं उनको पहिचान
३५९ पानी को कैसे भला, पानी दुख पहुंचाय।  ब्रम्हज्ञान की बात सुन, बंकट चुप रह जाय
३६० फिर सुनार चिमटे लिये, कंट निकालन आय। ढूँढन लागे देह श्री, कांटे कहाँ बिंधाय   
३६१ श्रीजी फिर उनसे कहें, व्यर्थ परिश्रम काय। चिमटे से निकले नहीं, नयन दिखेंगे नाय
३६२ श्रीजी अपनी बात का, देने लगे प्रमान।  श्वास रोक ली देह से, बाहर कांटे आन
३६३ चमत्कार यह देखकर, सब आनन्द समाय। भुट्टे भूने खाय कर, सांझ हुई घर आय
 
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-06
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhayay-06

दो सन्तों की भेंट


३६४ उन्हीं दिनों एक सन्त थे, श्री नरसिंग था नाम। निर्जन वन वासा करें, सम्मुख अकोट ग्राम
३६५ बियाबान सुनसान वन, बरगद के बहु झाड़।  झाड़ों पर बेलें चढ़ीं, सर्पों की थी बाढ़
३६६ सन्त इसी एकान्त में, बैठे ध्यान लगाय।  मनोवेग श्री गजानन, उनसे मिलने आय
३६७ जल से जल जैसे मिले, आपस घुल मिल जाय। नरसिंगजी महाराज से, तस समरस हो जाय
३६८ एक हरी तो एक हर, दोनों ईश स्वरूप। कोहिनूर गर एक तो, दूजा कौस्तुभ रूप
३६९ पुलकित मन दोनों मिले, वरनि जाई भेंट।  करने लागे वारता, एकहि आसन बैठ
३७० श्री कहते नरसिंगजी, आप किया यह ठीक। छोड़ा ना परपंच को, मेरी दूजी लीक
३७१ क्रिया योग अपनाय मैं, सचिदनन्द गहिलीन। चमत्कार घटने लगे, लोग सके ना चीन्ह
३७२ इत उत भटकूं बावला, पागल रूप रचाय। योग शक्ति सामर्थ को, ऐसे रहा छिपाय
३७३ शास्त्रों में विद्वान सब, मारग तीन बताय। कर्म भक्ति वा योग से,प्रभु को जाना जाय
३७४ मारग चाहें तीन हों, तत्व एक ही होय। बाह्य रूप चाहे अलग, फलित एक ही होय
३७५ योग साधना जो करे, कमल पत्र सा होय। प्रभु को जानेगा अगर, दूर अहम से होय
३७६ ऐसे ही नरसिगंजी ,प्रपंच साधन होय। "मैं" "मेरा" से दूर रहे, सत चित आनन्द होय
३७७ मैं तुम अरु भगवन विष्णु, एक रूप सब होय। नारायण नर अलग नहीं, तत्व ज्ञान यह होय
३७८ नरसिंगजी तब बोलते, मिलने आये आप। बन्धुराज मुझ पर हुई, दया जिस का माप
३७९ दोपहरी की छांव सा, अस्थिर क्षणिक प्रपंच। उसको सच मानूँ नहीं, बात आप की संच
३८० परमपिता जिस काज हित, हमको दी यह देह। काज वही करते रहें, ना कोई सन्देह
३८१ आप सदा मिलते रहें, मैं देखूँगा राह। जैसे नन्दीग्राम भरत, देखे रघुपति राह
३८२ अकोट आना आप को, कठिन कछू ना होय। क्रिया योग ज्ञाता सरल, त्रिलोक भरमन होय
३८३ दोनों सच्चे सन्त की, चली रात भर बात। दम्भ,कलह कोई नहीं, प्रेम भरी मुलकात  
३८४ मुलाकात की बात जब, पहुँची अकोट गांव। दर्शन पाने के लिये ,दौड़ा सारा गांव॥
३८५ आपस में कहने लगे, लिये नारियल हाथ। गंगा जमना संगम सा, दो सन्तों का साथ
३८६ चलो चलो हम सब चलें, स्नान करें परयाग। ऐसे दर्शन फिर कहां ,अहा हमारा भाग
३८७ आश्रम जब पहुँचे सभी,नहीं गजानन पाय।  वे पहले ही चल दिये,ले नरसिंग बिदाय

ब्रजभूषण को करा दिया प्रातः रवि दर्शन

३८८ एक बार महराज जी, भरमण दरिया पूर। नदी किनारे गाँव था, शिवर नाम मशहूर
३८९ शिष्य भी सभी संग थे, बेला प्रातःकाल।  ब्रजभूषण उस गाँवके, बुद्धी बहुत विशाल
३९० कीरत उनके ज्ञान की, विदर्भ में चहुँओर।  सूर्यदेव के भक्त बड़े, रविदर्शन नित भोर
३९१ एक सुबह नदिया तीरे, करने आये स्नान।  अर्ध्य चढ़ाया सूर्य को, समक्ष थे भगवान
३९२ भव्य मूरति गजानना, भानू सम दिख जाय।  दर्शन उनके पाय कर, ब्रजभूषण हरषाय
३९३ पूजा सामग्री लिये, दौड़ पास में आय।  चरणों अर्ध्य चढ़ाय कर, प्रदक्षिणा कर जाय
३९४ श्लोक रवी का गाय के, द्वादश करें प्रणाम।  फिर उतारते आरती, यूँ देते सम्मान
३९५ धन्य आज मैं हो गया, पूजा का फल पाय। नभ रवि को जो अर्घ्य दिया, रवि दर्शन मिल जाय
३९६ ज्ञान निधि योगेश्वरा, भव से तारन हार।  रहम नज़र मुझपर करो, कर दो मम उद्धार
३९७ भूषण गले लगाय के, सिरपर रक्खा हाथ।  तेरा जय जयकार हो, आशिष तेरे साथ
३९८ कर्मयोग छोडो नहीं, विधि का हो सम्मान।  लिप्त मगर होना नहीं, उनमें यह लो जान
३९९ करे आचरण कर्म का, फल की रखे आस। उसको भगवन कृष्ण के, दरशन मिलते खास
४०० दरशन ध्यान तुझे मिले, रखे सीख जो याद।  महाराज ने फिर दिया, श्रीफल का परसाद
४०१ पंडित को लौटाय घरे, श्री लौटे शेगांव।  कहलाता शेगांव जो, कभी रहा शिवगाव

मन्दिर अब रहने लगे श्री गजानन महाराज

४०२ विदर्भ में शेगांव का, बड़ा रहा है नाम।  एक गांव सतरा पाटील, सत्य बात यह जान
४०३ प्रकट गजानन यहाँ हुए, पर हुए स्थाई।  अकोट मलकापुर अकोला, यहाँ वहाँ जाई
४०४ सावन का महीना लगा, जेठ असाढ़ी जाय।  मारुती मंदिर सज गया, उत्सव शुरू हो जाय
४०५ हनूमान के भक्त थे, सब पाटील परिवार।  पाटील को जो प्रिय लगे, गांव के लिये सार
४०६ सावन सारा गांव ही, हनुमत मन्दिर जात।  भजन कीर्तन भण्डारे, होत रहे दिन रात
४०७ पर्व श्रावणी शुरू हुआ, मन्दिर श्री भगवान।  श्री गजानना आय रहे, दर्शन को हनुमान
४०८ श्रीजी बंकट से कहें, प्यारे भक्त सुजान।  अब मन्दिर वासा करूँ, बुरा नहीं तू मान
४०९ मैं फकीर सन्यासि हूं, तेरे घर रहूं।  मन्दिर से ही भक्त के, बुलावे आत रहूं
४१० अन्तर की तुझसे कहूं, ज़िद्द करियो तोय। सन्यासी तो भ्रमण करे, घर ना रहते होय
४११ बात हमारी मान लो, होगा तव कल्याण।  बंकट अब लाचार था, ना का ना था स्थान
४१२ मन्दिर अब रहने लगे, श्री गजानन महाराज। भक्त सभी हर्षित हुए, भास्कर सेवा काज
४१३ गण गण गणात बोते बोल ,जय जय गजानना। राणा हैं शेगांव के, योगी गजानना  

श्री हरिहरार्पणमस्तु शुभं भवतु

(छठा अध्याय समाप्त )



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