अध्याय बारह
मन्दिर हो श्रीराम का इच्छा बच्चुलाल
७९७ बच्चुलाल इक धनपति, वास अकोला होय। श्री गजानन सन्त पर, असीम श्रद्धा होय ॥ 
७९८ एक दिवस श्री गजानना, उसके घर आ जाय। घर बाहर के ओटले, पर आकर जम जाय ॥ 
७९९ बच्चुलाल आनन्द से, विनय करें महाराज। सद्गुरु की पूजा करु, देवें अनुमती आज ॥ 
८०० महाराज बोले नहीं, गर्दन देय हिलाय। मौन संमती पायके, अगरवाल हर्षाय ॥ 
८०१ विधि षोडश उपचारसे, पूजा की प्रारम्भ। उबटन अंग लगाय के, मंगल स्नान आरम्भ ॥ 
८०२ पीत वस्त्र परिधान पर,
कश्मीरी दोशाल। श्री गजानना शीश पर, रेशम का रूमाल ॥ 
८०३ गले स्वर्णमाला डाली, रत्न जड़ित था हार। दसों उंगलियों हीरे की, अंगूठी दे डार ॥ 
८०४ नैबद था मिष्ठान का, जलेबियां पेड़े। पानदान में सज गये, बरक लगे बीड़े ॥ 
८०५ अष्टगंध इत्तर अगर, अंग सुवास लगाय। फूलोंकी वर्षा करें, गुलाबजल छिड़काय ॥ 
८०६ दस सहस्र की दक्षिणा, रखी स्वर्ण के थाल। श्रीफल सह अर्पण करें, श्री को बच्चुलाल ॥ 
८०७ हाथ जोड़ विनती करे, गुरु पूजन के बाद। मन में ऐसी भावना, देवें आशीरवाद ॥ 
८०८ आप विराजे हैं जहाँ, मन्दिर हो श्रीराम। श्री के आशिरवाद से, हो जाये यह काम ॥ 
८०९ पूर्ण करें संकल्प तेरा, जग के दाता राम। पंचायत श्री राम की, बैठेगी अभिराम ॥ 
८१० पर तूने यह आज जो, किया तमाशा होय। घोड़ा जस बारात का, मुझे सजाया होय ॥ 
८११ आभूषण ये स्वर्ण के, हीरे जवाहिरात। मेरे ना कुछ कामके, मेरे लिये अजात ॥ 
८१२ या निज वैभव मान का, किया प्रदर्शन होय। मैं तो साधु दिगम्बरा, इस धन का क्या होय ॥ 
८१३ जगत सेठ वह विठ्ठला, है मेरा यजमान। उसके पास कमी नहीं, क्या वैभव क्या मान ॥ 
८१४ ऐसा कह महाराज दो, पेड़े मुंह में डार। फेंक दिये चारो तरफ, भूषण वस्त्र उतार ॥ 
८१५ बाद वहां से चल दिये, भक्त दुखी हो जाय। गजानना की बातका, मर्म समझ ना पाय ॥ 
८१६ नश्वर तन को सजाय के, रे मन मत इतराय। तीन लोक की सम्पदा, प्रभु चरणोंमें पाय ॥
पत्ते फूटे ठूँठ से हरा हो गया आम
८१७ मठवासी शेगांव के, एक शिष्य की बात। फटी हुई धोती पहन, पीताम्बर कहलात ॥ 
८१८ सन्त कहे निज भक्त से, ओ रे पीताम्बर। पहन चीथड़े घूमता, मठ में इधर उधर ॥ 
८१९ देखें नर नारी तुझे, ढँक ले अंग नगन। स्वर्णलता के तन नहीं, पीतल का भी नगन ॥ 
८२० पहन दुपट्टा ले मेरा, इज्जत अपनी ढांप। कोई गर कुछ भी कहे, ना सुनना आलाप ॥ 
८२१ पीताम्बर को प्यार से, सदगुरु वस्र उढाय। मठवासी कुछ भक्त यह, देखत मना कुढाय ॥ 
८२२ आरोपित करने लगे, मन में मत्सर शूल। श्री वस्रों को ओढ़ लिया, पीताम्बर की भूल ॥ 
८२३ पीताम्बर नाही किया, सदगुरु का अपमान। गुरु आज्ञा को मानकर, रक्खा गुरु का मान ॥ 
८२४ भक्तों में इस बात पर, हो गई तनातनी। समाधान ऐसा किया, महाराज ज्ञानी ॥ 
८२५ पीताम्बर तुझ पर मेरा, प्यार सदा भरपूर। बाल सयाना होय तो, माय गोद से दूर ॥ 
८२६ तू अब ज्ञानी हो गया, मठ में रहना नाय। भक्तों के उद्धार हित, भ्रमण करो जग माय ॥ 
८२७ गुरु आज्ञा पालन करै, सदगुरु का चेला। 
सजल नयन पीताम्बरा, मठ को छोड़ चला ॥ 
८२८ गजानना गुरुदेव का, मन में रटता नाम। शाम रुका वन में जहाँ, निकट वृक्ष था आम ॥ 
८२९ भोर भई सूरज उगा, चिउंटे लगे सताय। आम वृक्ष पर जा चढ़ा, टहनी पर बैठाय ॥
८३० चिउंटे फिर काटन लगे, पीतम्बर घबराय। इस डाली उस डाल चढ़े, चिउंटे भी आ जाय ॥ 
८३१ टहनी टहनी फान्दता, इत उत चढ़ उतराय। ठौर निरापद पर कहीं, पीताम्बर ना पाय ॥ 
८३२ पास गांव कोंडोलि से, आये कुछ गोपाल। कौतुक से देखने लगे, मानुस फिरै डगाल ॥ 
८३३ पाय सूचना ग्वाल से, वहाँ जुट गई भीर। देखें 
उसकी हरकतें, समझे पागल पीर ॥ 
८३४ पूछन लागे क्यों यहाँ, कौन कहाँ से आय। आया हूं शेगांव से, शिष्य गजानन साय ॥ 
८३५ उन के ही आदेश से, करूं भ्रमण मैं भाय। 
रात यहा विश्राम किया, चिउंटे बहुत सताय ॥ 
८३६ गजानना का नाम लिया, वे तो सन्त महान। चेला दिखता पागला, कोई सच ना मान ॥ 
८३७ सच में तू यदि शिष्य है, श्री गजानन महाराज। चमत्कार तू भी दिखा, जैसे गुरु महराज ॥ 
८३८ यहीं पास सूखा हुआ,
एक आम तरु होइ। यदि तू शिष्य गजानना, हरा भरा कर सोइ ॥ 
८३९ सुनते ही पीताम्बरा, घबराया घिघियाय। ऐसे नहीं सताव मुझे, छोड़ो मुझको भाय ॥ 
८४० झूठ नहीं मैं बोलता, गुरु हैं गजानना। पर मैं पत्थर चकमका, हीरा गजानना ॥ 
८४१ चमत्कार ना कर सकूं, मेरे बस की नाय। सिद्ध योग जानूं नहीं, ठूंठा कस हरिताय ॥ 
८४२ लोग कहें यदि शिष्य तू, गुरुजी करें सहाय। कर आव्हान गजानना, वे दौड़ेंगे आय ॥ 
८४३ इत कूवा उत खड्ड की, परिस्थिती आ जाय। पीताम्बर अब क्या करे, सूझे नहीं उपाय ॥ 
८४४ सूखे आम निकट खड़े, कोंडोली नर नार। मारेंगे यदि नहीं हुआ, पेड़ हरा कचनार ॥ 
८४५ हे स्वामी श्री गजानना, रक्षा करियो नाथ | मेरे कारण लग रहा, दोष आप के माथ ॥ 
८४६ भिक्षा मांगूँ आपसे, दया करो महराज। आम्र ठूंठ को हरा करो, मेरी रखियो लाज ॥ 
८४७ सन्त और भगवान में, अन्तर नाही होय। मेरे भगवन आप ही, आपहि समरथ होय ॥ 
८४८ मैं धागा हूं हार का, पुष्प आप गुरुदेव। चढूं अकिंचन आप के, साथ शीश शिवदेव ॥ 
८४९ अन्त न मेरा देखिये, शीघ्र पधारो साय। सूख गये इस पेड़ में, हरित पत्तियां लायं ॥ 
८५० भक्तों मेरे साथ लो, श्री सदगुरु का नाम। जय गजानना श्री हरी, हरा-हरा हो आम ॥ 
८५१ जय गजानन गजानना, घोष हो रहा नाम। पत्ते निकले ठूंठ से, हरा हो गया आम ॥ 
८५२ हरा हो गया आम तरू, अचरज सबको होय। देखें पतियां तोड़ के, शंका निरसन होय ॥ 
८५३ महा सन्त श्री गजानना, अनुभूति हो जाय। चेले को सम्मान से, कोंडोली ले जाय ॥ 
८५४ कोंडोली वाशिम जिला, आज भी हरा आम। पीताम्बर महराज का, वहाँ बड़ा हैं नाम ॥
  फूट पड़ी इस गांव
८५५ भक्तों अब आगे सुनो, कथा गजानन सन्त। मठ में बैठे एक दिन, कुछ अनमन थे कन्त ॥ 
८५६ शिष्यों से कहने लगे, अब न रहूँ शेगांव। यहाँ जगह ना चाहिए, फूट पड़ी इस गाँव ॥ 
८५७ भक्त मंडली चिन्तातुर, श्री से विनय करे। हमें छोड़कर आप श्री, गमन कहीं न करे ॥ 
८५८ अगर मिले ऐसी जगह, मालिक कोइ न होय। तभी रहूं शेगांव में, या फिर जाना होय ॥ 
८५९ उलझन में सब भक्त गण, कैसा करें उपाय। बिन मालिक की भूमि तो, सरकारी ही पाय ॥ 
८६० क्यों दे धरती सन्त को, अंगरेजी सरकार। अशक्य पर भूदान को, भक्त सभी तैयार ॥ 
८६१ महाराज कहने लगे, भक्तों तुम अज्ञान। सबै भूमि गोपाल की, यह ना पाए जान ॥ 
८६२ हरि पाटिल को साथ लो, और काम लग जाव। यत्न करो तो यश मिले, मन में शक ना लाव ॥ 
८६३ हरि पाटिल सरकार को, अरजी दई लगाय। एकड़ एक जमीन करी, साहब जी दे जाय ॥ 
८६४ महाराज के भक्तगण, चन्दा लेकर आय। नवीन मठ का इस तरह, काम शुरू हो जाय ॥ 
८६५ गण गण गणात बोते बोल, जय जय गजनना। राणा हैं शेगांव के, योगी गजानना ॥ 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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