Gajanan Maharaj

Wednesday, May 27, 2020

Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-03


अध्याय तीन


गजानना को गोसाई,  गांजा रहा पिलाय

१३७ चरण वन्दना के लिये,  भक्तन की भरमार। मधुमक्खी सम भक्तजन, शहद गजानन प्यार ॥
१३८ एक दिवस श्री गजानना,  आसन बिराजमान। पूरब लाली छा रही, पक्षी करते गान ॥
१३९ अंधकार भागा गुफा, उगता सूरज देख। शीतल पवन चली चले, राम नाम की टेक ॥
१४० प्रभात बेल सुहावनी, इक साधू आ जाय।झोली बगल दबाय के,  चिन्दी शीश कषाय ॥
१४१ दर्शन की आशा लिये,  बैठा एक किनार। अवसर मुझको ना मिले, दर्शन भीड़ अपार ॥
१४२ काशी में कीरत सुनी,  मन में ली यह ठान। जाऊंगा शेगांव मैं ,दरशन को श्रीमान ॥
१४३ भोग चढ़ाऊं भांग का, ऐसा व्रत मन माय। मगर यहां श्री चरण के,  दर्शन की गति नाय ॥
१४४ मानी सम्मानी धनी,  सभ्य सभी हैं लोग। मनवा की बातें कहूं,  नहीं स्थान यह योग ॥
१४५ गोसाई मन सोचते,  कैसे दर्शन पाय। जो जिसको भाये वही,  अपने इष्ट चढ़ाय ॥
१४६ अन्तर्यामी गजानना,  जाने मन की बात। अपने पास बुला लिया,  ला मेरी सौगात ॥
१४७ तीन माह झोली रखी, पुड़िया आज निकाल। चरणों में लोटन लगा, साधू होय निहाल ॥
१४८ हाथ जुड़े डरते- डरते, बोला फिर गोसाइ। बूटी याद रखें अगर,  याद रहे गोसाइ ॥
१४९ मैं जानूं श्री आपको,  बूटी से नहि काम। याद सदा मेरी रहे,  ऐसा दो वरदान ॥
१५० मैं बालक लघु आपका,  इच्छा पूरण होय। वानरि अंजनि कोख से, जन्म शिवा का होय ॥
१५१ आप स्वयं साक्षात शिव, करो नहीं इनकार। बूटी भूषण आपका, व्यसन जगत व्यवहार ॥
१५२ कुछ सोचा,  फिर हां कहें,  श्री गजानन महराज। गोसाई को वर दिया, चिलम पियें महराज ॥
१५३ कीचड़ में ज्यों कमल रहे,  वैसे श्री महाराज। रहते जग व्यवहार में , अनासक्त महराज ॥
१५४ वेद ऋचा उच्चारते , कभी कभी महराज। राग अनेकों जानते,  गायक सम महराज ॥
१५५ चन्दल चावल बेल की, ये पद बहुत पसन्द। गाते थे आनन्द से महाराज ये छन्द ॥
१५६ भजन गायं गण गण कभी, कभी धार लें मौन। वन-वन में भटके कभी, या शैय्या पर सौन ॥
 
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-03
Gajanan Maharaj Hindi Dohavali Adhyay-03

जानराव संकट टला


१५७ जानराव बीमार था,  अन्त समय आ जाय। नाड़ी देखे बैद कहे,  अब नाही बच पाय ॥
१५८ सगे सम्बन्धी रो रहे,  दुख में डूबत जाय। हाय मनाए देव कई,  मिला न कोई उपाय ॥
१५९ सब सोचें बंकट घरे,  इक अवतारी आय। पंढरपुर शेगांव बना,  जब से वे प्रगटाय ॥
१६० अवतारी यदि ठान लें,  जानराव बच जाय। जस ज्ञानेश्वर माउली,  सचिदानन्द उठाय
१६१ जानराव का इक सगा, बंकट के घर जाय। बंकट के घर जायके,  सारा हाल सुनाय ॥
१६२ चरणामृत महराज का,  अगर हमें मिल जय। जानराव की जान बचे, जस अमृत मिल जाय ॥
१६३ बंकट ने तब यूं कहा, मेरी नहीं बिसात। चरणामृत यदि चाहिये, विनय करें मम तात ॥
१६४ तुरत भवानीराम जी, जल श्री चरण लगाय। आज्ञा मांगे तीर्थ यह,  जानराव को जाय ॥
१६५ श्री की आज्ञा पाय के,  दिया सगे को तीर्थ। उसने जाय मरीज को, पिला दिया वह तीर्थ ॥
१६६ जानराव की जान बची,  चमत्कार यह जान। नर नारी सब खुश हुए,  श्री का मिला प्रमाण
१६७ जानराव ने उसी समय,  औषधि कर दी बन्द। हफ्ते भर तीरथ लिया,  तबियत हुई बुलन्द ॥
१६८ तबियत हुई बुलन्द तो,  दर्शन को वह आय । तीरथ अमरत सम हुआ,  कथा यही बतलाय ॥
१६९ सन्त नहीं थे गजानना,  कलियुग के भगवान। किन्तु मरण तो है अटल,  नियम प्रकृति जान ॥
१७० सन्त नियम ना टालते टालें वे विपदाय। भारी संकट प्राण पर,  सहज रीति टल जाय ॥
१७१ शरण अनन्या भाव से, जो चरणन में जाय। शीत उसे की दूर हो,  अगन शरण जो आय ॥
१७२ अधि भौतिक अधि दैविक,  अरु आध्यात्मिक होय। तीन तरह के मरण हैं, बात ज्ञान की होय ॥
१७३ भक्ति भजन में मरण हो, या समाधि हो ध्यान। यह तो कभी न टल सके, बात गूढ़ यह जान ॥
१७४ अधि भौतिक जो मरण हो, टाल सके है बैद। अधि दैविक को टाल सके,  मंत्र जाप अरु वेद ॥
१७५ जानराव के मरण को,  जस टालें महराज। षट विकार से दूर जो,  कर सकता यह काज ॥
१७६ पीतल पीला देखकर,  स्वर्ण समझियो नाहि। वस्र गेरुवा देखकर, साधू समझो नाही ॥
१७७ श्री गजानन महराज जी,  सच्चे योगी जान। जानराव की जान बची,  करके तीरथ पान।॥
१७८ जान बची महराज जी,  करने लगे विचार। चमत्कार करने लगूं,  चाहेगा संसार ॥
१७९ कर विचार श्री गजानना,  धारे उग्र स्वरुप । सभी देख घबराय पर,  भक्त रहे गुपचूप
१८० नहीं डरे प्रहलाद भगत,  नरसिंह के अवतार। बाघिन के बच्चे भला,  मां से क्यों भयजार ॥

विठुबा माली ढोंग करे, मार खाय भग जाय

१८१ एक कथा अब और सुनो, सच्चे हैं यह बोल। कस्तूरी के संग बढ़े,  मिटटी का भी मोल ॥
१८२ चन्दन का यदि साथ हो,  हिवर सुगन्धि पाय। पाय सुगंधि तो हिवर,  क्या चन्दन बन जाय ॥
१८३ साधू जन रहते जहां,  मन्दमती भी होय। हीरा पत्थर साथ में,  एक खान में होय ॥
१८४ एक खान में होय पै,  हीरे का हो मोल। पत्थर पैरों रुंधता,  कोई करे न तौल ॥
१८५ इसी तरह एक मंदमती,  महाराज के साथ। सेवाधारी रूप में, रहता था दिन रात ॥
१८६ बातें सेवा की करे,  अंतर में कुछ और। महराज के नाम पर,  माल मलाई चोर ॥
१८७ मैं तो श्री का लाडला,  चिलम भरूँ मैं रोज। महराज की चाकरी,  मैं ही करता रोज ॥
१८८ लोगों से कहता फिरै,  मो बिन चलै न काम | शिव का नन्दी बन गया,  मालि विठूबा नाम ॥
१८९ श्री जी तो सब जानते,  घटना इक घट जाय। किसी गांव से भक्तगण,  श्री दर्शन को आय ॥
१९० महराज तब सो रहे,  उनको कौन जगाय। आप विठूबा लाड़ले,  श्री दरशन करवाय ॥
१९१ सुन तारीफ विठूबा माली,  फूला नहीं समाय। तुरत जगा महराज को,  दर्शन दिये कराय ॥
१९२ दरशन उनके हो गये,  संकट माली आय। कर्म किये का फल मिला, विठुबा लाठी खाय ॥
१९३ लाठी मारे जायं श्री,  खबर विठू की लेय। भूला तू औकात क्या,  धन्धा करता होय ॥
१९४ नीच नराधम चोर पर,  दया कभी ना होय। शक्कर समझूं सोम को,  यह गलती ना होय ॥
१९५ खूब ठुकाई जब हुई,  भागा विठू माली। लौट कभी आया नहीं,  भक्त रहा जाली ॥
१९६ श्री जी सच्चे सन्त थे,  षठ का साथ न होय। काम जहां हो धर्म का,  वहं व्यापार न होय ॥
१९७ रक्षण सबका सन्त करें,  भेद करें गुण दोष। पत्थर मांगा कल्पतरु,  यही विठोबा दोष ॥
१९८ गण गण गणात बोते बोले,  जय जय गजानना। राणा हैं शेगांव के,  योगी गजानना ॥
श्री हरिहरार्पणमस्तु ॥ शुभं भवतु ॥
(तीसरा अध्याय समाप्त )


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