अध्याय तीन
गजानना
को गोसाई, गांजा रहा पिलाय
१३७ चरण वन्दना के लिये,
भक्तन की भरमार। मधुमक्खी
सम भक्तजन, शहद गजानन प्यार ॥
१३८ एक दिवस श्री गजानना,
आसन बिराजमान। पूरब लाली छा
रही, पक्षी करते गान ॥
१३९ अंधकार भागा गुफा,
उगता सूरज देख। शीतल पवन चली चले, राम नाम की
टेक ॥
१४० प्रभात बेल सुहावनी,
इक साधू आ जाय।झोली बगल
दबाय के, चिन्दी शीश
कषाय ॥
१४१ दर्शन की आशा लिये,
बैठा एक किनार। अवसर मुझको ना मिले, दर्शन भीड़ अपार ॥
१४२ काशी में कीरत सुनी,
मन में ली यह ठान। जाऊंगा
शेगांव मैं ,दरशन को श्रीमान ॥
१४३ भोग चढ़ाऊं भांग का,
ऐसा व्रत मन माय। मगर यहां श्री चरण के, दर्शन की गति नाय ॥
१४४ मानी सम्मानी धनी,
सभ्य सभी हैं लोग। मनवा की
बातें कहूं, नहीं
स्थान यह योग ॥
१४५ गोसाई मन सोचते,
कैसे दर्शन पाय। जो जिसको भाये वही, अपने इष्ट चढ़ाय ॥
१४६ अन्तर्यामी गजानना,
जाने मन की बात। अपने पास
बुला लिया, ला मेरी
सौगात ॥
१४७ तीन माह झोली रखी,
पुड़िया आज निकाल। चरणों में लोटन लगा, साधू
होय निहाल ॥
१४८ हाथ जुड़े डरते- डरते,
बोला फिर गोसाइ। बूटी याद रखें अगर, याद रहे गोसाइ ॥
१४९ मैं जानूं श्री आपको,
बूटी से नहि काम। याद सदा
मेरी रहे, ऐसा दो
वरदान ॥
१५० मैं बालक लघु आपका,
इच्छा पूरण होय। वानरि
अंजनि कोख से, जन्म शिवा का होय ॥
१५१ आप स्वयं साक्षात शिव,
करो नहीं इनकार। बूटी भूषण आपका, व्यसन जगत
व्यवहार ॥
१५२ कुछ सोचा,
फिर हां कहें, श्री गजानन महराज। गोसाई को वर
दिया, चिलम पियें महराज ॥
१५३ कीचड़ में ज्यों कमल रहे,
वैसे श्री महाराज। रहते जग
व्यवहार में , अनासक्त महराज ॥
१५४ वेद ऋचा उच्चारते ,
कभी कभी महराज। राग अनेकों जानते, गायक सम महराज ॥
१५५ चन्दल चावल बेल की,
ये पद बहुत पसन्द। गाते थे आनन्द से महाराज
ये छन्द ॥
१५६ भजन गायं गण गण कभी,
कभी धार लें मौन। वन-वन में भटके कभी, या
शैय्या पर सौन ॥
जानराव संकट टला
१५७ जानराव बीमार था,
अन्त समय आ जाय। नाड़ी देखे
बैद कहे, अब नाही बच
पाय ॥
१५८ सगे सम्बन्धी रो रहे,
दुख में डूबत जाय। हाय मनाए
देव कई, मिला न कोई
उपाय ॥
१५९ सब सोचें बंकट घरे,
इक अवतारी आय। पंढरपुर
शेगांव बना, जब से
वे प्रगटाय ॥
१६० अवतारी यदि ठान लें,
जानराव बच जाय। जस
ज्ञानेश्वर माउली, सचिदानन्द उठाय ॥
१६१ जानराव का इक सगा,
बंकट के घर जाय। बंकट के घर जायके, सारा हाल सुनाय ॥
१६२ चरणामृत महराज का,
अगर हमें मिल जय। जानराव की
जान बचे, जस अमृत
मिल जाय ॥
१६३ बंकट ने तब यूं कहा, मेरी नहीं बिसात। चरणामृत यदि चाहिये,
विनय करें मम तात ॥
१६४ तुरत भवानीराम जी,
जल श्री चरण लगाय। आज्ञा मांगे तीर्थ यह, जानराव को जाय ॥
१६५ श्री की आज्ञा पाय के,
दिया सगे को तीर्थ। उसने
जाय मरीज को, पिला दिया वह तीर्थ ॥
१६६ जानराव की जान बची,
चमत्कार यह जान। नर नारी सब
खुश हुए, श्री का
मिला प्रमाण ॥
१६७ जानराव ने उसी
समय, औषधि
कर दी बन्द। हफ्ते भर तीरथ लिया, तबियत हुई बुलन्द ॥
१६८ तबियत हुई बुलन्द तो,
दर्शन को वह आय । तीरथ अमरत
सम हुआ, कथा यही
बतलाय ॥
१६९ सन्त नहीं थे गजानना,
कलियुग के भगवान। किन्तु
मरण तो है अटल, नियम
प्रकृति जान ॥
१७० सन्त नियम ना टालते टालें वे विपदाय। भारी
संकट प्राण पर, सहज रीति टल जाय ॥
१७१ शरण अनन्या भाव से,
जो चरणन में जाय। शीत उसे की दूर हो, अगन शरण जो आय ॥
१७२ अधि भौतिक अधि दैविक,
अरु आध्यात्मिक होय। तीन
तरह के मरण हैं, बात ज्ञान की होय ॥
१७३ भक्ति भजन में
मरण हो, या समाधि
हो ध्यान। यह तो कभी न टल सके, बात गूढ़ यह जान ॥
१७४ अधि भौतिक जो मरण हो,
टाल सके है बैद। अधि दैविक को टाल सके, मंत्र जाप अरु वेद ॥
१७५ जानराव के मरण को,
जस टालें महराज। षट विकार
से दूर जो, कर सकता
यह काज ॥
१७६ पीतल पीला देखकर, स्वर्ण समझियो नाहि। वस्र गेरुवा
देखकर, साधू समझो नाही ॥
१७७ श्री गजानन महराज जी, सच्चे योगी जान। जानराव की जान बची, करके तीरथ पान।॥
१७८ जान बची महराज जी, करने लगे विचार। चमत्कार करने
लगूं, चाहेगा संसार
॥
१७९ कर विचार श्री गजानना, धारे उग्र स्वरुप । सभी देख
घबराय पर, भक्त रहे गुपचूप ॥
१८० नहीं डरे प्रहलाद भगत, नरसिंह के अवतार। बाघिन के बच्चे भला, मां से क्यों भयजार ॥
विठुबा
माली ढोंग करे, मार खाय भग जाय
१८१ एक कथा अब और सुनो,
सच्चे हैं यह बोल। कस्तूरी के संग बढ़े, मिटटी का भी मोल ॥
१८२ चन्दन का यदि साथ हो,
हिवर सुगन्धि पाय। पाय
सुगंधि तो हिवर, क्या
चन्दन बन जाय ॥
१८३ साधू जन रहते जहां,
मन्दमती भी होय। हीरा पत्थर साथ में, एक खान में होय ॥
१८४ एक खान में होय पै,
हीरे का हो मोल। पत्थर
पैरों रुंधता, कोई
करे न तौल ॥
१८५ इसी तरह एक मंदमती,
महाराज के साथ। सेवाधारी
रूप में, रहता था दिन रात ॥
१८६ बातें सेवा की करे,
अंतर में कुछ और। महराज के
नाम पर, माल मलाई
चोर ॥
१८७ मैं तो श्री का लाडला,
चिलम भरूँ मैं रोज। महराज
की चाकरी, मैं ही
करता रोज ॥
१८८ लोगों से कहता फिरै,
मो बिन चलै न काम | शिव का नन्दी बन गया, मालि विठूबा नाम ॥
१८९ श्री जी तो सब जानते,
घटना इक घट जाय। किसी गांव
से भक्तगण, श्री
दर्शन को आय ॥
१९० महराज तब सो रहे,
उनको कौन जगाय। आप विठूबा
लाड़ले, श्री दरशन
करवाय ॥
१९१ सुन तारीफ विठूबा माली,
फूला नहीं समाय। तुरत जगा
महराज को, दर्शन
दिये कराय ॥
१९२ दरशन उनके हो गये,
संकट माली आय। कर्म किये का फल मिला, विठुबा लाठी खाय ॥
१९३ लाठी मारे जायं श्री,
खबर विठू की लेय। भूला तू
औकात क्या, धन्धा
करता होय ॥
१९४ नीच नराधम चोर पर,
दया कभी ना होय। शक्कर
समझूं सोम को, यह
गलती ना होय ॥
१९५ खूब ठुकाई जब हुई,
भागा विठू माली। लौट कभी आया नहीं, भक्त रहा जाली ॥
१९६ श्री जी सच्चे सन्त थे,
षठ का साथ न होय। काम जहां
हो धर्म का, वहं
व्यापार न होय ॥
१९७ रक्षण सबका सन्त करें,
भेद करें गुण दोष। पत्थर
मांगा कल्पतरु, यही
विठोबा दोष ॥
१९८ गण गण गणात बोते बोले,
जय जय गजानना। राणा हैं
शेगांव के, योगी
गजानना ॥
श्री
हरिहरार्पणमस्तु ॥ शुभं भवतु ॥
(तीसरा
अध्याय समाप्त )
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