वन्दना
आध्याय 01 |
अध्याय एक
१ गौरीपुत्र गणेशजी, मयुरेश्वर जय हो। हे उदार
कीरत प्रभो, परतापी जय हो॥
२ सन्त और विद्वान जब, कार्य करें आरम्भ। सुमिरन
करते आपका, हे गणपति हेरम्भ ॥
३ कृपा शक्ति से आपकी, विघ्न सभी टल जाय। ज्यों
अगनी के सामने,रुई भस्म हो जाय ॥
४ कवि 'सुमन्त' वन्दन करे, चरणन शीश नवाय। सरस
काव्य रचना प्रभो, मेरे मुख कहलाय ॥
५ मैं अज्ञानी मन्द मती, कविता कही न जाय । वास
करें प्रभु बुद्धि में, तो कारज सध जाय ॥
६ ब्रम्ह कुमारी शारदा, नमन करें स्वीकार ।
अज्ञानी इस बाल का, मिटा अहम् अंधकार ॥
७ कृपा मात की होय तो, लंग़डा चढ़े पहाड़ । भरी सभा
में जाय दे, गूंगा भाषण झाड़ ॥
८ ऐसी महिमा आपकी, उसमें कमी न आय । इसीलिये माँ
सरस्वती, मुझको करो सहाय ॥
९ पांडुरंग सर्वेश्वरा, आप ही जग आधार। सर्व चराचर
व्यापते, जग जन तारन हार ॥
१० निर्गुण सगुण
भी आप ही, आप हि माई बाप। कवि 'सुमन्त' जाने नहीं, आपकि महिमा आप ॥
११ रामकृपा वानर
हुए, अतुलित बलशाली। कृष्ण कृपा से ग्वाल भी बने शक्तिशाली ॥
१२ कृपा बरसती आप
की, जो शरणागत होय। आया द्वारे आपके, लौटाओ ना मोय ॥
१३ संतकथा लिखने
चला, कवि 'सुमन्त' असहाय। मेरे मन आकर प्रभो, पंढरि करो सहाय ॥
१४ नीलकण्ठ
गंगाधरा, हे त्र्यम्बक ऊँकार। कर मेरे मस्तक धरो, काल सके ना मार ॥
१५ पारस तुम लोहा
'सुमन्त', जो तुम धर दो हाथ। दरस पाय सोना बनूँ, मदद करो श्रीनाथ ॥
१६ कोल्हापुर की वासिनी, माँ कुलदेवी होय। माथ
रखूँ उनके चरण, सब शुभ मंगल होय ॥
१७ वन्दन दत्तात्रय करूँ, देवें आशिर्वाद। चरित
गजानन मैं लिखूँ, पा जाऊँ परसाद ॥
१८ गौतम, पाराशर, शांडिल, वशिष्ठ परमाचार्य। ज्ञान
गगन के सूर्य सम, आदि शंकराचार्य ॥
१९ सन्त महन्ता ऋषि मुनी, आशिष देवें आप। मेरे कर
में लेखनी, लिखवाएँगे आप ॥
२० देहूवासी तुकारामजी, निवृत्ति गहनी नाथ।
रामदासजी को नमूँ, सन्त ज्ञानजी नाथ ।।
२१ शिर्डी के साई प्रभो, वामनजी पुनवन्त। कवि
'सुमन्त' को आपका अभयदान हो सन्त ॥
२२ कृपा आपकी होय तो, यह बालक अज्ञान। चरित गजानन
गा रहा, क्षमा करो भगवान ॥
२३ मात आप मैं बाल हूँ, बोल सिखाएँ आप। निमित
मात्र मम लेखनी, चरित लिखाएँ आप ॥
२४ अब श्रोतागण
श्रवण करें, सन्त चरित्र महान। ध्यान देय एकाग्र मन, होगा निज कल्याण ॥
२५ इस धरती पर सन्त ही, परमेश्वर हैं जान। वे सागर
बैराग के, मोक्ष प्रदाता मान ।।
२६ सन्त सुनीती मूरती, शुभ
मंगल की पैठ। दग़ा यहाँ कोई नहीं,चरित सुनो तुम बैठ।।
२७ सन्त ज्ञान भण्डार हैं, ईश
रूप हैं जान। सन्त चरण गहि ले अगर, ऋणी क्रष्ण भगवान।।
२८ भक्तों अब आराम से, शान्त
चित्त के साथ। सन्त गजानन कथा सुनो,निर्मल मन के साथ।।
परब्रह्म प्रकटाय
२९ भारत जम्बूद्वीप मे, प्रगटे
सन्त अनेक। धन्य धन्य यह भूमि है, सुख की रही न मेख ॥
३० नारद ध्रुव प्रहलाद उधव, अर्जुन
वा हनुमान।अध्यातम के मेरु सम, जगद् गुरु का नाम ॥
३१ वलभचार्य रामानुज से, धर्म
प्रवर्तक होय। नरसी तुलसी सूर का, वर्णन कैसे होय ॥
३२ महाप्रभु गौरांग की, लीला
अपरम्पार। रानी मीरा भक्ति का, कोई न पावे पार ॥
३३ योगेश्वर नवनाथ का, वर्णन
भक्ती सार। नामदेव से सन्त हुए, नरहारी सोनार ॥
३४ सन्त सखू चोखा मेला, कूर्म
दास जी पन्त। कान्हो पात्रा सावता, पुण्य राशि ये सन्त ॥
३५ इन सन्तों की पाँति में, सन्त
गजानन होय। अवतारी श्री गजानना, लोक प्रभावी होय ॥
३६ दास गणू पहिले लिखे, सन्त
चरित वे 'सार '। 'श्री गजानन विजय' यह, रचना कह
विस्तार ॥
३७ विदर्भ में एक गाँव है, कहलाए
शेगाव। होता है व्यापार बड़ा, छोटा सा है गाँव ॥
३८ छोटा सा है गाँव वह, वैभव
बड़ा महान। कमल गजानन उदय हुआ, अखिल ब्रम्ह सन्मान ॥
३९ चरित गजानन मेघ तो, श्रोता
मगन मयूर। कथा बरसती नीर सम, नाचे मस्त मयूर ॥
४० सन्त रत्न ऐसे मिले, भाग्य
उदय शेगांव। गाँव निवासी पुण्य किये, पड़े सन्त के पांव ॥
४१ पंढरपुर वारी मिले, रामचन्द्र
पाटील। मेरे मन की वे कहें, लिख डालो तफ़सील ॥
४२ पता ठिकाना नहीं पता, नहीं
पता है जात। क्या ब्रम्हा के ठांव का, पता किसी को ज्ञात ॥
४३ जस हीरे की चमक से, उसको
जाना जाय। किस खदान पैदा हुआ, प्रश्न न पूछा जाय ॥
४४ उसी तरह से सन्त का प्रभाव परिचय होय। पता ठिकाना
नाम से,
कुछ मतलब ना होय ॥
४५ शके अठारहवीं शती, माघ
वद्य सप्तम। महाराज शेगांव में, तरुण आयु आगम ॥
४६ कोई कहे श्रीसमर्थ के, सज्जनगढ़
से आयं। सज्जनगढ़ की बात का, सबल पुरावा नायं ॥
४७ सबल पुरावा नायं पर, लोग
करें विश्वास । श्री समर्थ प्रगटे पुनः, जगहित यही कयास ॥
४८ जैसे जब चाहे जहां, प्रगट
होय योगी। चांगदेव, कानिफ, गोरख ऐसे ही
योगी ॥
४९ योगी श्री महाराज की, लीलाएँ
न्यारी। चरित पढ़े वो जान ले, महिमाएँ सारी ॥
५० देविदास पातूरकर, एक मठाधिश होय। लड़के की ऋतू
शांति का, भोज प्रयोजन होय ॥
५१ आमंत्रित सब भोज कर, पत्तल
देवें फ़ेंक। उसी जगह बण्डी पहन, योगी बैठे एक ॥
५२ हाथ बनी कच्ची चिलम, और
तूम्बडा एक। तन से रहे तपोबली, मुद्रा उनकी नेक ॥
५३ बैठ दिगम्बर राह में, झूठा
भोजन खायं। अन्न ब्रम्हा का रूप है, यह लीला दिखलायं ॥
५४ श्री जब जूठन खा रहे, निकले
दो रहगीर। बंकट अरु दामोदरजी, देख हुए गम्भीर ॥
५५ आपस में करने लगे, दोनों स्नेही बात। देखे से
पागल दिखें, है कुछ और हि बात ॥
५६ बंकटजी आगे बढ़े, श्री से पूछी बात। जूठन
काहे खाय रहे, भोजन लायें तात ॥
५७ श्री जी ने कुछ ना कहा, दॄष्टि
गहन गम्भीर। वक्ष विशाला, उन्नत भाला, निजानन्द
अरुधीर ॥
५८ बंकटजी सन्तोष चित, श्री
को करें प्रणाम। देविदास आदर करें, भर लाए पकवान ॥
५९ भोजन की थाली रखी, श्री गजानना पायं। शांत
चित्त भोजन करें, सब पकवान मिलायं ॥
६० भोजन तो पाया मगर, तुम्बे
में जल नाय। वे श्री जी से पूछते, क्या जल लेकर आयं ॥
६१ श्री जी मुसकाये कहा, अगर
यही आचार। भोजन फिर जलपान का, पूर्ण होय व्यवहार ॥
६२ दामू जल लाने गये, इक
घटना घट जाय। पशुओं के जलकुण्ड से, श्री जी जल पी जाय ॥
६३ नहीं नहीं वह पेय जल, ना
पीयें भगवान। शीतल जल लोटा भरा, मधुर करें यह पान ॥
६४ श्री जी तब बोले कहा, करो
बात यह नाहि। मल -निर्मल में भेद नहीं, ब्रह्रा चराचर माहि ॥
६५ पीने वाला भी वही, पानी भी वह जान। सभी उसी का
रूप हैं, कण-कण में भगवान ॥
६६ दोनों जन श्री वाणि सुन, होते
भाव विभोर। चरणों में लोटन लगे, हिरदय भरी हिलोर ॥
६७ तभी वहाँ से चल दिये, वायु
वेग महराज। चरणों में हम नमन करें, श्री गजानन महाराज ॥
६८ गण गण गणात बोते बोल, जय
जय गजानना। राणा हैं शेगांव के, योगी गजानना ॥